________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुनीय] बना कर नारकों को पकड़ लेते हैं, जाल में बांध देते हैं, लेप्य द्रव्य से उन्हें चिपका देते हैं, फिर उन्हें मार देते हैं / ऐसी ही दशा मेरी (मृगापुत्र की) थी।' सोल्लगाणि --(1) बृहद्वृत्ति के अनुसार--भाड़ में पकाये हुए, अथवा (2) अन्य विचारकों के मतानुसार --शूल में पिरो कर आग में पकाये गये। सुरा, सीधु, मैरेय और मधु सामान्यतया ये चारों शब्द 'मद्य' के अर्थ में हैं, किन्तु इन चारों का विशेष अर्थ इस प्रकार किया गया है-सुरा–चन्द्रहास नाम की मदिरा, सीधु-ताड़ वृक्ष की ताड़ी, मैरेय--जौ आदि के आटे से बनी हुई मदिरा तथा मधु-पुष्पों से तैयार किया हुअा मद्य / तिव्वचंडपगाढाओ० -यद्यपि तीव्र, चण्ड, प्रगाढ प्रादि शब्द प्रायः एकार्थक हैं, अत्यन्त भयोत्पादक होने से ये सब वेदना के विशेषण हैं। इनका पृथक्-पृथक् विशेषार्थ इस प्रकार है-तीव्रनारकीय वेदना रसानुभव की दृष्टि से अतीव तीव्र होने से तीव्र, चण्ड--उत्कट, प्रगाढ–दीर्घकालीन (गुरुतर) स्थिति वाली, घोर-रौद्र, अति दुःसह-अत्यन्त असह्य, महाभया-जिससे महान् भय हो, भीमा-सुनने में भी भयप्रद / निमेसंतरमित्तं पि-निमेष का अर्थ-अाँख की पलक झपकाना, उसमें जितना समय लगता है, उतने समय भर भी।" निष्कर्ष-मृगापुत्र के इस समग्र कथन का आशय यह है कि जब मैंने पलक झपकने जितने समय में भी सुख नहीं पाया, तब वास्तव में कैसे कहा जा सकता है कि मैं सुखशील हूँ या सुकुमार हूँ। इसी तरह जिसने (मैंने) नरकों में प्रत्युष्ण-अतिशीत आदि महावेदनाएँ अनेक बार सहन की हैं, परमाधामिकों द्वारा दी गई विविध यातनाएँ भी सही हैं, उसके लिए महाव्रत-पालन का कष्ट अथवा श्रमणधर्म के पालन का दुःख या परीषह-उपसर्ग सहन किस बिसात में है ? वास्तव में महाव्रतपालन, श्रमणधर्माचरण अथवा परीषहसहन उसके लिए परमानन्द का हेतु है / इन सब दृष्टियों से मुझे अब निर्ग्रन्थमुनिदीक्षा हो अंगीकार करनी है / 1. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 460 (ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 537 2. (क) 'सोल्लगाणि' ति भडित्रीकृतानि / ' बृहद्वृत्ति, पत्र 461 (ख) शुलाकृतानि शूले समाविध्य पक्वानि / -उत्तरा. प्रियदशिनी, भा. 3, पृ. 540 3. उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 3, पृ. 541 / / सुरा–चन्द्रहासाभिधानं मद्यं, सीधु:-~-तालवृक्षनिर्यासः (ताड़ी), मैरेयः--पिष्ठोद्भवं मद्यं, मधूनि-पुष्पो द्भवानि मद्यानि / 4. बृहद्वत्ति, पत्र 461 5. वही, पत्र 461 6. वही, पत्र 461 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org