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________________ 322] [उत्तराध्ययनसूत्र ___ कंदुकुभोसु"तीन अर्थ-(१) कंदुकुम्भी-लोह आदि धातुओं से निर्मित पाकभाजनविशेष / (2) कन्दु का अर्थ है-भाड़ (भ्राष्ट्र) और कुम्भी का अर्थ है-घड़ा, अर्थात् भाड़ की तरह का विशेष कुम्भ / अथवा (3) ऐसा पाकपात्र, जो नीचे से चौड़े और ऊपर से संकड़े मुह वाला हो।' हुताशन : अग्नि-नरक में बादर अग्निकायिक जीव नहीं होते, इसलिए वहाँ पृथ्वी का स्पर्श हो वैसा उष्ण प्रतीत होता है / यहाँ जो हुताशन (अग्नि) का उल्लेख है, वह सजीव अग्नि का नहीं अपितु देवमाया (विक्रिया) कृत अग्निवत् उष्ण एवं प्रकाशमान पुद्गलों का द्योतक है / वहरबालुए कलंबबालुयाए-नरक में वज्रबालुका और कदम्बबालुका नाम की नदियाँ हैं, उनके पुलिन (तटवर्ती बालुमय प्रदेश) को भी वज्रबालुका और कदम्बबालुका कहते हैं, जो महादवाग्नि सदृश अत्यन्त तप्त रहते हैं। कोलसुणए --कोल का अर्थ है---सुअर और शुनक का अर्थ है-कुत्ता। अथवा कोलशुनक का अर्थ-बृहद्वृत्ति में सूअर किया गया है / अर्थात्-सूकर-कुक्कुर स्वरूपधारी श्याम और शबल परमाधार्मिकों द्वारा / कड्ढोकड्ढाहि-कृष्ट एवं अवकृष्ट---अर्थात्--खींचातानी करके / " रोज्झो : रोश-वृत्तिकार ने रोझ का अर्थ पशुविशेष किया है, परन्तु देशी नाममाला में रोझ का अर्थ मृग की एक जाति किया गया है। मुसंढीहिं : मुषण्डियों से-देशी नाममाला के अनुसार-मुषण्ढी लकड़ी का बना एक शस्त्र है, जिसमें लोहे के गोल कांटे लगे रहते हैं / विदंसएहि-विदंशकों विशेषरूप से दंश देने वाले विदंशकों अर्थात्-पक्षियों को पकड़ने वाले बाज पक्षियों से / प्रस्तुत 65 वीं गाथा का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इस लोक में पारधी (बहेलिए) बाज आदि पक्षियों की सहायता से पक्षियों को पकड़ लिया करते हैं, अथवा जाल फैला कर उन्हें बांध लिया करते हैं तथा चिपकाने वाले लेप द्वारा उन्हें जोड़ दिया करते हैं और फिर मार देते हैं, इसी प्रकार नरक में परमाधार्मिक देव भी अपनी वैक्रियशक्ति से बाज आदि का रूप 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 459 (ख) उत्तरा. विवेचन (मुनि नथमल) भा. 2, पृ. 148 2. (क) 'तत्र च बादराग्नेरभाबात पृथिव्या एव तथा विघः स्पर्श इति गम्यते / ' (ख) 'अग्नौ देवमायाकृते।' -बृहद्वृत्ति, पत्र 459 3. वही, पत्र 459 4. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 524 (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र 460 : "कोलसुणएहि-सूकरस्वरूपधारिभिः / " 5. कड्ढोकड्ढाहि—कर्षणापकर्षणैः परमाधार्मिककृतः। - वृहद्वत्ति, पत्र 459 6. (क) रोज्झ:--पशुविशेषः / -बृहद्वृत्ति, पत्र 460 (ख) देशी नाममाला, 712 7. देशी नाममाला, श्लोक 151 : 'मुषुण्डी स्याहारमयी वृत्तायःकोलसंचिता।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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