________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय [321 मृगापुत्र ने नरकों में अनुभूत उनसे भी अनन्तगुणी वेदनाओं का वर्णन किया, जो यहाँ 44 से 74 वीं तक 31 गाथाओं में अंकित है। यद्यपि नरकों में पक्षी, शस्त्रास्त्र, सूअर, कुत्ते, छुरे, कुल्हाड़ी, फरसा, लुहार, सुथार, बाजपक्षी आदि नहीं होते, किन्तु वहाँ नारकों को दुःख देने वाले नरकपाल परमाधर्मी असुरों के द्वारा ये सब वैक्रियशक्ति से बना लिये जाते हैं और नारकीय जीवों को अपनेअपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार (कभी-कभी पूर्वकृत पापकर्मों की याद दिला कर) विविध यंत्रणाएँ दी जाती हैं।' चाउरते : चातुरन्त-यह संसार का विशेषण है। इसका विशेषार्थ है-संसार के नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव; ये चार अन्त–अवयव (अंग) हैं, इसलिए वह (संसार) चातुरन्त कहलाता है। इह लोगे निप्पियासस्स-इहलोक शब्द से यहाँ इहलोकस्थ, इस लोक सम्बन्धी स्वजन, धन आदि का ग्रहण किया जाता है। किसी के मत से ऐहिक सुखों का ग्रहण किया जाता है। अतः इस पंक्ति का तात्पर्यार्थ हया---जो साधक इहलौकिक स्वजन, धन आदि के प्रति या ऐहिक सुखों के प्रति निःस्पृह या निराकांक्ष है, उसके लिए शुभानुष्ठान यदि अत्यन्त कष्टकर हों तो भी वे कुछ भी दुष्कर (दुरनुष्ठेय) नहीं हैं / तात्पर्य यह है कि भोगादि की स्पृहा होने पर ही ये शुभानुष्ठान दुष्कर लगते हैं। नरकों में अनन्तगुणी उष्णता-यद्यपि नरकलोक में बादर अग्नि नहीं है, तथापि मनुष्यलोक में अग्नि की जितनी उष्णता है, उससे भी अनन्तगुणी उष्णता के स्पर्श का अनुभव वहाँ होता है। यही बात नारकीय शीत (ठंड) के सम्बन्ध में समझनी चाहिए / ___ नरकों में पीड़ा पहुंचाने वाले कौन ?–इस प्रश्न का समाधान यह है कि प्रथम तीन नरकपृथ्वियों में परमाधर्मी असुरों द्वारा नारकों को पीड़ा पहुँचाई जाती है / शेष अन्तिम चार नरकपृथ्वियों में नारकीय जीव स्वयं परस्पर में एक दूसरे को वेदना की उदीरणा करते हैं। 15 प्रकार के परमाधार्मिक देवों के नाम इस प्रकार हैं-(१) अम्ब, (2) अम्बरीष, (3) श्याम, (4) शबल, (5) रुद्र, (6) महारुद्र, (7) काल, (8) महाकाल, (6) असिपत्र, (10) धनुष, (11) कुम्भ, (12) बालुक, (13) वैतरणी, (14) खरस्वर और (15) महाघोष / यहाँ जिन यातनाओं का वर्णन किया गया है, उनमें से बहुत-सी यातनाएँ इन्हीं 15 परमाधर्मी असुरों द्वारा दी जाती हैं। 1. उत्तराध्ययनसूत्र मूलपाठ, अ. 19, गा. 44 से 74 तक 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 459 : चत्वारो देवादिभवा अन्ता–अवयवा यस्याऽसौ चतुरन्तः--संसारः / कशब्देन च 'तात्स्थ्यात् तदव्यपदेश' इति कृत्वा ऐहलौकिकाः स्वजन-धनसम्बन्धादयो गृह्यन्ते / " / (ख) उत्तरा. अनुवाद-विवेचन-युक्त (मुनि नथमल), भा. 1 पृ. 246 4. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 459, (ख) समवायांग, समवाय 15 वत्ति, पत्र 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org