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________________ वीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन-सार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'महानिर्ग्रन्थीय' (महानियंठिज्ज) है। महानिर्ग्रन्थ की चर्या तथा मौलिक सिद्धान्तों और नियमों से सम्बन्धित वर्णन होने के कारण इसका नाम 'महानिर्ग्रन्थीय' रखा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में श्रेणिक नप द्वारा मुनि से पूछे जाने पर उनके द्वारा स्वयं को 'अनाथ' कहने पर चर्चा का सूत्रपात हुआ है और बाद में मुनि द्वारा अपनी अनाथता और सनाथता का वर्णन करने पर तथा अन्त में अनाथता के विविध रूप बताये जाने पर सनाथ-अनाथ का रहस्यो द्घाटन हुआ है। मगधसम्राट श्रेणिक एक बार घूमने निकले / वे राजगृह के बाहर पर्वत को तलहटी में स्थित मण्डिकुक्ष नामक उद्यान में पहुंच गए। वहाँ उन्होंने एक तरुण मुनि को ध्यानस्थ देखा / मुनि के अनुपम सौन्दर्य, रूप-लावण्य आदि को देख कर विस्मित राजा ने सविनय पूछा-'मुनिवर ! यह तरुण अवस्था तो भोग के योग्य है। आपका यह सुन्दर, दीप्तिमान् एवं स्वस्थ शरीर सांसारिक सुख भोगने के लिए है। इस अवस्था में पाप मुनि क्यों बने ?' मुनि ने कहा'राजन् ! मैं अनाथ था, इस कारण साधु बना !' राजा को यह सुन कर और अधिक आश्चर्य हुआ। राजा-'आपका इतना सुन्दर रूप, शरीरसौष्ठव आपकी अनाथता की साक्षी नहीं देता। फिर भी यदि किसी प्रभाव के कारण आप अनाथ थे, या कोई संरक्षक-अभिभावक नहीं था, तो लो मैं आपका नाथ बनता हूँ। आप मेरे यहाँ रहें, मैं धन धाम, वैभव तथा समस्त प्रकार को भोगसामग्री आपको देता हूँ।' मुनि-'राजन् ! आप स्वयं अनाथ हैं, फिर दूसरों के नाथ कैसे बनेंगे ?' राजा-'मैं अपार सम्पत्ति का स्वामी हूँ, मेरे आश्रित सारा राजपरिवार, नौकर-चाकर, सुभट, हाथी, घोड़े, रथ आदि हैं। समस्त सुखभोग के साधन मेरे पास हैं। फिर मैं अनाथ कैसे?' मुनि-'राजन् ! आप सनाथ-अनाथ के रहस्य को नहीं समझते, केवल धन-सम्पत्ति होने मात्र से कोई सनाथ नहीं हो जाता। जब समझ लेंगे, तब स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि आप अनाथ हैं या सनाथ ! मैं अपनी आपबीतो सुनाता हूँ। मेरे पिता कौशाम्बी के धनाढ्य-शिरोमणि थे। मेरा कुल सम्पन्न था / मेरा विवाह उच्च कुल में हुआ। एक बार मुझे असह्य नेत्र-पीड़ा उत्पन्न हई। मेरे पिताजी ने पानी की तरह पैसा बहा कर मेरी चिकित्सा के लिये वैद्य, मंत्रवादी, तंत्रवादी आदि बुलाए, उनके सब प्रयत्न व्यर्थ हुए। मेरी माता, मेरी सगी बहनें, भाई सब मिलकर रोगनिवारण के प्रयत्न में जुट गए, परन्तु वे किसी भी तरह नहीं मिटा सके / मेरी पत्नी रात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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