________________ उन्नीसवां अध्ययन : मृगापुत्रीय] [313 [30] धन-धान्य एवं प्रेष्यवर्ग-दास-दासी आदि से सम्बन्धित परिग्रह का त्याग तथा सभी प्रकार के प्रारम्भों का परित्याग करना और ममतारहित हो कर रहना अतिदुष्कर है। 31. चउदिवहे वि आहारे राईभोयणवज्जणा / सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयवो सुदुक्करो॥ [31] अशन-पानादि चतुर्विध आहार का रात्रि में सेवन करने का त्याग करना तथा (कालमर्यादा से बाहर) घृतादि सन्निधि का संचय न करना भी सुदुष्कर है। 32. छुहा तण्हा य सीउण्हं दंस-मसग-वेयणा / अक्कोसा दुक्खसेज्जा य तणफासा जल्लमेव य / / [32] क्षुधा, तृषा (प्यास), सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों को वेदना, आक्रोश (दुर्वचन), दुःखप्रद शय्या (वसति-स्थान), तृणस्पर्श तथा मलपरीषह 33. तालणा तज्जणा चेव वह-बन्धपरोसहा / दुक्खं भिक्खायरिया जायणा य अलाभया / / [33] ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन, भिक्षा-चर्या, याचना और अलाभ, इन परीषहों को सहन करना अत्यन्त दुःखकर है। 34. कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ य दारुणो / दुक्खं बम्भवयं घोरं धारेउं य महप्पणो / [34] यह जो कापोतीवृत्ति (कबूतरों के समान दोषों से साशंक एवं सतर्क रहने को वत्ति), दारुण (भयंकर) केशलोच करना एवं घोर ब्रह्मचर्यव्रत धारण करना महात्मा (उत्तम साधु) के लिए भी अतिदुःखरूप है। 35. सुहोइओ तुम पुत्ता ! सुकुमालो सुमज्जिओ। न हु सी पभू तुमं पुत्ता ! सामण्णमणुपालिउँ / [35] हे पुत्र ! तू सुख भोगने के योग्य है, सुकुमार है, सुमज्जित (-स्नानादि द्वारा साफसुथरा रहता) है / अतः पुत्र ! तू (अभी) श्रमणधर्म का पालन करने में समर्थ नहीं है। 36. जावज्जीवमविस्सामो गुणाणं तु महाभरो। गुरुओ लोहमारो व्व जो पुत्ता ! होई दुव्यहो / [36] पुत्र ! साधुचर्या में जीवन भर (कहीं) विश्राम नहीं है / लोहे के भार की तरह साधुगुणों का वह महान् गुरुतर भार है, जिसे (जीवनपर्यन्त) वहन करना अत्यन्त कठिन है। 37. आगासे गंगसोउव्व पडिसोओ व्व दुत्तरो। बाहाहि सागरो चेव तरियन्यो गुणोयही / [37] जैसे अाकाश-गंगा का स्रोत एवं (जलधारा का) प्रतिस्रोत दुस्तर है, जिस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org