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________________ 312 [उत्तराध्ययनसूत्र किम्पाकफल-किम्पाक एक वृक्ष होता है, जिसके फल अत्यन्त मधुर, स्वादिष्ट, एवं सुगन्धित होते हैं, किन्तु उसे खाते ही मनुष्य का शरीर विषाक्त हो जाता है और वह मर जाता है।' अप्पकम्मे अवेयणे-धर्म पाथेय है। धर्माचरणसहित एवं सावधव्यापाररहित सपाथेय व्यक्ति जब परभव में जाता है, तो उसे सातावेदनरूप सुख का अनुभव होता है / माता-पिता द्वारा श्रमणधर्म की कठोरता बता कर उससे विमुख करने का उपाय ___ 25. तं बित ऽम्मापियरो सामण्णं पुत्त ! दुच्चरं / गुणाणं तु सहस्साई धारेयव्वाइं भिक्खुणो।। [25] माता-पिता ने उसे (मृगापुत्र से कहा-पुत्र ! श्रमणधर्म का आचरण अत्यन्त दुष्कर है / (क्योंकि) भिक्षु को हजारों गुण धारण करने होते हैं। 26. समया सव्वभूएसु सत्तु-मित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करं / / . [26] भिक्षु को जगत् में शत्रुओं और मित्रों के प्रति, अथवा (यों कहो कि) समस्त जीवों के प्रति समत्व रखना तथा जीवन-पर्यन्त प्राणातिपात से निवृत्त होना अत्यन्त दुष्कर है / 27. निच्चकालऽप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं / भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं // [27] सदा अप्रमादी रह कर मृषावाद (असत्य) का त्याग करना (तथा) निरन्तर उपयोग युक्त रह कर हितकर सत्य बोलना, बहुत ही दुष्कर है। 28. दन्त-सोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं / ___ अणवज्जेसणिज्जस्स गेण्हणा अवि दुक्करं // [28] दन्तशोधन आदि भी विना दिए न लेना तथा प्रदत्त वस्तु भी अनवद्य (-निर्दोष) और एषणीय ही लेना अतिदुष्कर है। 26. विरई अबम्भचेरस्स कामभोगरसन्न णा। उग्गं महव्वयं बम्भं धारेयव्वं सुदुक्करं / / [29] कामभोगों के स्वाद से अभिज्ञ व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य (मैथुन) से विरत होना तथा उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना अतीव दुष्कर कार्य है / 30. धण-धन्न-पेसवग्गेसु परिगहविवज्जणं / सव्वारम्भपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं / / 1. वृहद्वृत्ति, पत्र 454 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 455 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 3, पृ. 486 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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