________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय] [311 है और वह भी दुःख एवं क्लेश का भाजन है, शरीर के लिए मनुष्य को अनेक क्लेश, दुःख, संकट, रोग, शोक, भय, चिन्ता, प्राधि, व्याधि, उपाधि आदि सहने पड़ते हैं / शरीर के पालन-पोषण, संवर्द्धन, रक्षण आदि में रातदिन अनेक दुःख उठाने पड़ते हैं / इस कारण इस मनुष्यशरीर को व्याधि और रोग का घर तथा जरा-मरणग्रस्त बता कर मृगापुत्र ने ऐसे नश्वर एवं एक दिन अवश्य त्याज्य इस शरीर में रहने में अपनी अनिच्छा एवं अरुचि दिखाई है। संसार की नश्वरता—संसार की प्रत्येक सजीव एवं निर्जीव वस्तु नाशवान् है / फिर जिन नश्वर वस्तओं, स्वजनों या मनोज्ञ विषयभोगों या भोगसामग्री को मनुष्य जटाता है, उन पर मोहममता करता है, उनके लिए नाना कष्ट उठाता है, उन सबको एक दिन विवश होकर उसे छोड़ना पड़ता है / इसीलिए मृगापुत्र कहता है कि जब इन्हें एक दिन छोड़ कर चले जाना है तो फिर इनके साथ मोह-ममत्वसम्बन्ध ही क्यों बांधा जाए? धर्मकर्ता और अधर्मकर्ता को सपाथेय-अपाथेय की उपमा--१८ से 21 वी गाथा तक बताया गया है कि जो व्यक्ति धर्मरूपी पाथेय लेकर परभव जाता है, वह सुखी होता है, जबकि धर्मरूपी पाथेय लिये बिना ही परभव जाता है, वह धर्माचरण के बदले अनाचार, कदाचार, विषयभोग आदि में रचापचा रहकर जीवन पूराकर देता है / फलतः वह रोग, व्याधि, चिन्ता प्रादि कष्टों से पीड़ित रहता है / असार को छोड़ कर सारभत की सुरक्षा बुढ़ापे और मरण से जल रहे असार संसार में से निःसारभूत शरीर और शरीर से सम्बन्धित सभी पदार्थों का त्याग करके या उनसे विरक्ति-अनासक्ति रख कर एकमात्र सारभूत आत्मा या प्रात्मगुणों को सुरक्षित रखना ही मृगापुत्र का प्राशय है। इस गाथा के द्वारा मृगापुत्र ने धर्माचरण में विलम्ब के प्रति असहिष्णुता प्रगट की है / ' रोग और व्याधि में अन्तर-मूल में शरीर को 'वाहीरोगाण आलए' (व्याधि और रोगों का घर) बताया है, सामान्यतया व्याधि और रोग समानार्थक हैं, किन्तु बृहद्वृत्ति में दोनों का अन्तर बताया गया है / व्याधि का अर्थ है—अत्यन्त बाधा (पीड़ा) के कारणभूत राजयक्ष्मा आदि जैसे कष्ट साध्य रोग और रोग का अर्थ है-ज्वर आदि सामान्य रोग। पच्छा-पुरा य चइयत्वे-शरीर नाशवान् है, क्षणभंगुर है, कब यह नष्ट हो जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है / वह पहले छुटे या पीछे, एक दिन छटेगा अवश्य / यदि पहले छटता है तो अभुक्तभोगावस्था यानी बाल्यावस्था में और पीछे छूटता है तो भुक्तभोगावस्था अर्थात्-बुढ़ापे में छूटता है / अथवा जितनी स्थिति (आयुष्य कर्मदलिक) है, उतनी पूर्ण करके यानी अायुक्षय के पश्चात् अथवा सोपक्रमी आयुष्य हो तो जितनी स्थिति है, उससे पहले ही किसी दुर्घटना आदि के कारण आयुष्य टूट जाता है / निष्कर्ष यह है कि शरीर अनित्य होने से पहले या पीछे कभी भी छोड़ना पड़ेगा, तब फिर इस जीवन (शरीरादि) को विषयों या कषायों आदि में नष्ट न करके धर्माचरण में, आत्मस्वरूपरमण में या रत्नत्रय की आराधना में लगाया जाए यही उचित है / 1. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 453 से 455 तक (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटोका भा. 3, पृ. 476 से 489 तक 2. बृहद्वत्ति, पत्र 455 : व्याधय:-अतीव बाधाहेतवः कुष्ठादयो, रोगाः -ज्वरादयः / 3. वही, पत्र 454 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org