________________ 310 [उत्तराध्ययनसूत्र 19. श्रद्धाणं जो महन्तं तु अपाहेओ पवज्जई / ... गच्छन्तो सो दुही होई छुहा-तहाए पीडिओ // [16] जो व्यक्ति पाथेय लिये बिना लम्बे मार्ग पर चल देता है, वह चलता हुआ (रास्ते में) भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुःखी होता है / 20. एवं धम्म अकाऊणं जो गच्छइ परं भवं / गच्छन्तो सो दुही होइ वाहोरोगेहि पीडिओ // [20] इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म ( धर्माचरण) किये बिना परभव में जाता है वह जाता हुआ व्याधि और रोग से पीड़ित एवं दुःखी होता है / 21. अद्धाणं जो महन्तं तु सपाहेओ पवज्जई / गच्छन्तो सो सुही होइ छुहा--तहाविवज्जिओ।। [21] जो मनुष्य पाथेय साथ में लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है, वह चलता हुआ भूख और प्यास (के दुःख) से रहित होकर सुखी होता है। 22. एवं धम्म पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं / गच्छन्तो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे // [22] इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्माचरण करके परभव (आगामी जन्म) में जाता है, वह अल्पकर्मा (जिसके थोड़े से कर्म शेष रहे हों, वह) जाता हुआ वेदना से रहित एवं सुखी होता है। /23. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पह। सारभण्डाणि नोणेइ असारं अवउज्झइ / / [23] जिस प्रकार घर में आग लग जाने पर उस घर का जो स्वामी होता है, वह (उस घर में रखी हुई) सारभूत वस्तुएं बाहर निकाल लाता है और असार (तुच्छ) वस्तुओं को (वहीं) छोड़ देता है। /24. एवं लोए पलितम्मि, जराए मरण य। अप्पाणं तारइस्सामि तुम्भेहि अणुमन्निओ॥ [24] इसी प्रकार जरा और मरण से जलते हुए इस लोक में से आपकी अनुमति पा कर सारभूत अपनी आत्मा को बाहर निकालूगा। विवेचन-भोगों का परिणाम प्रस्तुत में भोगों को जहरीले फल के समान कटुपरिणाम वाला बताया गया है / इसका आशय यही है कि विषयभोग भोगते समय पहले तो मधुर एवं रुचिकर लगते हैं, किन्तु भोग लेने के पश्चात् उनका परिणाम अत्यन्त कटु होता है / इसलिए भोग सतत दुःखपरम्परा को बढ़ाते हैं, दुःख लाते हैं / शरीर की अनित्यता, अशुचिता एवं दुःखभाजनता–१३-१४-१५ वी गाथाओं में कहा गया है कि शरीर अनित्य अशुचि, तथा शुक्र-शोणित आदि घृणित वस्तुओं से बना हुअा एवं भरा हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org