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________________ 314] [उत्तराध्ययनसूत्र समुद्र को भुजाओं से तैरना दुष्कर है, वैसे ही गुणोदधि (---ज्ञानादि गुणों के सागर--संयम) को तैरना —पार पाना दुष्कर है / 38. वालुयाकवले चेव निरस्साए उ संजमे / प्रसिधारागमणं चेव दुक्करं चरिउ तवो // [38] संयम, बालू (-रेत) के ग्रास (कौर) की तरह स्वाद-रहित है (तथा) तपश्चरण करना खड्ग की धार पर चलने जैसा दुष्कर है / 39. अहीवेगन्तदिट्ठीए चरिते पुत्त ! दुच्चरे / जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं // [36] हे पुत्र ! सर्प की तरह एकान्त (निश्चय) दृष्टि से चारित्र धर्म पर चलना अत्यन्त कठिन है / लोहे के जौ (यव) चबाना जैसे दुष्कर है, वैसे ही चारित्र का पालन करना दुष्कर है / 40. जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं / तह दुक्करं करेउं जे तारुण्णे समणत्तणं / / [40] जैसे प्रदीप्त अग्नि-शिखा (ज्वाला) को पीना दुष्कर है, वैसे ही तरुणावस्था में श्रमणधर्म का आचरण करना दुष्कर है। 41. जहा दुक्खं भरेउं जे होई वायस्स कोत्थलो। तहा दुक्खं करेउ जे कीवेणं समणत्तणं // [41] जैसे कपड़े के कोथले (थेले) को हवा से भरना दुःशक्य है, वैसे ही कायर व्यक्ति के द्वारा श्रमणधर्म का आचरण करना कठिन होता है। 42. जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मन्दरो गिरी। ___ तहा निहुयं नीसंकं दुक्करं समणत्तणं // [42] जैसे मन्दराचल को तराजू से तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चल और निःशंक होकर श्रमणधर्म का आचरण करना भी दुष्कर कार्य है। 43. जहा भुयाहि तरिउ दुक्करं रयणागरो। ___ तहा अणुवसन्तेणं दुक्करं दमसागरो / / [43] जैसे भुजाओं से समुद्र को तैरना अति दुष्कर है, वैसे ही अनुपशान्त व्यक्ति के लिए दम (अर्थात् चारित्र) रूपी सागर को तैरना दुष्कर है। 44. भज माणुस्सए भोगे पंचलक्खणए तुम। भुत्तभोगी तो जाया ! पच्छा धम्म चरिस्ससि / / [44] हे अंगजात ! तू पहले मनुष्य सम्बन्धी शब्द, रूप आदि पांच प्रकार के भोगों का भोग कर; उसके पश्चात् भुक्तभोग हो कर (श्रमण-) धर्म का आचरण करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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