________________ 308] [उत्तराध्ययन सूत्र अभिग्रहात्मक नत अथवा ऐच्छिक व्रत या योगसम्मत शौच-संतोष आदि नियम एवं संयम--सत्रह प्रकार का संयम, इनके धारक / ' सीलड्ढं : शीलाढ्य :- शील---अठारह हजार शीलांगों से आढ्य-परिपूर्ण या समृद्ध / अज्झवसाणमि सोहणे : अर्थ---शोभन (पवित्र) अध्यवसान-अन्तःकरणपरिणाम / अर्थात्प्रधान क्षायोपशमिक भाववर्ती परिणाम / पुराकडं : अर्थ -पूर्वजन्म में प्राचरित / विरक्त मृगापुत्र द्वारा दीक्षा की अनुज्ञा-याचना 9. जाइसरणे समुप्पन्न मियापुत्ते महिड्ढिए / सरई पोराणियं जाई सामण्णं च पुराकयं // [6] जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने पर महान ऋद्धि के धारक मृगापुत्र को पूर्वभव का स्मरण हुआ और पूर्वाचरित श्रामण्य-साधुत्व की भी स्मृति हो गई। 10. विसएहि अरज्जन्तो रज्जन्तो संजमम्मि य / अम्मापियरं उवागम्म इमं वयणमब्बवी // [10] विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त मृगापुत्र ने माता-पिता के पास आ कर इस प्रकार कहा 11. सुयाणि मे पंच महन्वयाणि नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु / निग्विण्णकामो मि महण्णवाओ अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो ! // [11] मैंने (पूर्वभव में) पंचमहाव्रतों को सुना है तथा नरकों और तिर्यञ्चयोनियों में दुःख है। मैं संसाररूप महासागर से काम-विरक्त हो गया हूँ। माता ! मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा; (अतः) मुझे अनुमति दें।" | विवेचन-विसएहि : अर्थ-मनोज्ञ शब्दादि विषयों में / पूर्वजन्म का अनुभव--मृगापुत्र ने जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न होने से माता-पिता को अपने पूर्वजन्म के अनुभव अथवा अनुभूत वृत्तान्त बताए, जिनमें मुख्य थे—(१) पूर्वजन्म में पंचमहाव्रतग्रहण, (2) नरक-तिर्यञ्चगतियों में अनुभूत दुःख / इन्हीं पूर्वजन्मकृत अनुभूतियों और स्मृतियों के आधार पर मृगापुत्र को संसार के कामभोगों से विरक्ति हुई / फलतः वह माता-पिता को दीक्षाग्रहण करने की अनुज्ञा प्रदान करने के लिए समझाता है। 1. (क) बहदवत्ति, पत्र 451 : नियमश्च द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः / (ख) शौचसंतोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। --योगदर्शन 2132 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 452 : शीलं-अष्टादशशीलांगसहस्ररूपं, तेनाढ्यं-परिपूर्णम् / 3. वही, पत्र 452 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org