________________ उन्नीसवां अध्ययन : मृगापुत्रीय] [307 मुनि को देख कर मृगापुत्र को पूर्वजन्म का स्मरण 4. मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणढिओ। आलोएइ नगरस्स चउक्क-तिय-चच्चरे / [4] एक दिन मृगापुत्र मणि और रत्नों से जड़े हुए कुट्टिमतल (फर्श) वाले प्रासाद के गवाक्ष (झरोखे) में स्थित होकर नगर के चौराहों (चौक), तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। 5. अह तत्थ अइच्छन्तं पासई समणसंजयं / तव-नियम--संजमधरं सीलड्ढे गुणआगरं / / [5] मृगापुत्र ने वहाँ राजपथ पर जाते हुए तप, नियम और संयम के धारक शील से सुसम्पन्न तथा (ज्ञानादि) गुणों के प्राकर एक श्रमण को देखा। 6. तं देहई मियापुत्ते दिट्ठीए प्रणिमिसाए उ। कहिं मन्न रिसं रूवं दिट्टपुग्वं मए पुरा / / [6] मृगापुत्र उस मुनि को अनिमेष दृष्टि से देखने लगा और सोचने लगा-'ऐसा लगता है कि ऐसा रूप मैंने इससे पूर्व कहीं देखा है।' 7. साहुस्स दरिसणे तस्स अज्झवसाणंमि सोहणे / मोहं गयस्स सन्तस्स जाईसरणं समुप्पन्न / / 8. देवलोग-चुओ संतो माणुस्सं भवमागओ। सन्निनाणे समुप्पण्णे जाई सरइ पुराणयं // [7.8] उस साधु के दर्शन तथा प्रशस्त अध्यवसाय के होने पर 'मैंने ऐसा कहीं देखा है इस प्रकार के अतिचिन्तन (ऊहापोह) वश मूर्छा-मोह को प्राप्त होने पर उसे (मृगापुत्र को) जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया / संज्ञि-ज्ञान अर्थात् समनस्क ज्ञान होते ही उसने पूर्वजन्म का स्मरण किया-'मैं देवलोक से च्युत हो कर मनुष्यभव में आया हूँ। विवेचन--मणि और रत्न में अन्तर-बृहद्वत्ति के अनुसार-मणि कहते हैं-विशिष्ट माहात्म्य वाले चन्द्रकान्त आदि रत्नों को तथा रत्न कहते हैं -गोमेयक आदि रत्नों को।' आलोयण : आलोकन : विशिष्ट अर्थ-जहाँ बैठ कर चारों दिशाओं का अवलोकन किया जा सके, ऐसे प्रासाद को आलोकन कहते हैं अथवा सर्वोपरि (सबसे ऊँचा) चतुरिकारूप गवाक्ष / तवनियमसंजमधर : विशिष्ट अर्थ--तप-बाह्य और आभ्यन्तर तप, नियम-द्रव्य आदि का 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 451 2. पालोक्यते दिशोऽस्मिन स्थितरित्यालोकनम् तस्मिन् सर्वोपरिवत्तिचतुरिकागवाक्षे वा स्थित:-उपविष्टः / -- बृहद्वति, पत्र 451 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org