________________ 300] [उत्तराध्ययनसूत्र एक दिन राजा उदायन को पौषध करके धर्मजागरणा करते हुए ऐसा .शुभ अध्यवसाय उत्पन्न हा कि 'अगर भगवान महावीर यहाँ पधारें तो मैं दीक्षाग्रहण करके अपना जीवन सफल बनाऊँ।' भगवान् उदायन के इन विचारों को ज्ञान से जान कर चम्पापुरी से वीतभयपत्तन के उद्यान में पधारे / उदायन ने प्रभु के समक्ष जब दीक्षाग्रहण के विचार प्रस्तुत किये तो भगवान् ने कहा-'शुभकार्य में विलम्ब न करो।' उदायन ने घर आकर विचार किया और आत्म-कल्याण से विमुख कर देने वाला राज्य पुत्र अभिजितकुमार को न सौंप कर अपने भानजे केशी को सौंपा तथा स्वयं ने वीरप्रभु से दीक्षा ग्रहण की। उदायन मुनि मासक्षमण (मासोपवास) तप द्वारा कर्म का क्षय एवं शरीर को कृश करने लगे। पारणे के दिन भी वे अन्त-प्रान्त आहार लेते थे। इस कारण उनका श गया / जब मुनिवर वीतभयपत्तन पधारे तो अकारणशत्रु दुष्ट मन्त्रियों ने उनके विरुद्ध केशी नृप के कान भर दिये / राजा केशी ने उनकी चाल में प्राकर राज्य में घोषणा करवा दी-'जो उदायन मुनि को रहने को स्थान देगा, वह राजा का अपराधी और दण्ड का भागी समझा जाएगा।' सिर्फ एक कुम्भकार ने अपनी कुम्भनिर्माणशाला में उन्हें ठहरने को स्थान दिया। किन्तु केशी राजा दुष्ट अमात्यों के साथ पाकर विनयपूर्वक प्रार्थना करने लगा-'भगवन् ! ग्राप रुग्ण हैं, अत: यह स्थान आपके ठहरने योग्य नहीं है / आप उद्यान में पधारें, वहाँ राजवैद्यों द्वारा प्रापकी चिकित्सा होगी। इस पर राजर्षि उदायन उद्यान में आकर ठहर गए। वहाँ केशी राजा ने षड्यन्त्र कर वैद्यों द्वारा विषमिश्रित औषध पिला दी। कुछ ही देर में विष समस्त शरीर में व्याप्त हो गया, राजर्षि को यह पता लग गया कि 'केशी राजा ने विषमिश्रित औषध दिलाई है / पर सोचा--इससे मेरी आत्मा का क्या नष्ट होने वाला है ? शरीर भले ही नष्ट हो जाए !' पवित्र अध्यवसाय के प्रभाव से राजर्षि ने केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। रानी प्रभावती ने देवी के रूप में जब यह सारा काण्ड अवधिज्ञान से जाना तो उक्त कुम्भकार को सिनपल्लीग्राम में पहुँचा कर सारे बीतभयनगर को धूलिवर्षा करके ध्वस्त कर दिया।' काशीराज द्वारा कर्मक्षय 49. तहेव कासोराया सेओ-सच्चपरक्कमे / कामभोगे परिच्चज्ज पहणे कम्ममहावणं // [46] इसी प्रकार श्रेय और सत्य (संयम) में पराक्रमी काशीराज ने कामभोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन को ध्वस्त किया। विवेचन—काशीराज नन्दन की कथा वाराणसी में अठारहवें तीर्थंकर श्री अरनाथ भगवान के शासन में अग्निशिख राजा था। उसकी दो पटरानियाँ थीं-जयन्ती और शेषवती। जयन्ती से नन्दन नामक सप्तम बलदेव और शेषवती से दत्त नामक सप्तम वासुदेव हुए / यथावसर राजा ने दत्त को राज्य सौंपा। इसने नन्दन की सहायता से भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर विजय प्राप्त की। अपनी छप्पन हजार वर्ष की आयु दत्त ने अर्धचक्री की लक्ष्मी एवं भोग भोगने में ही समाप्त की। अतः वह मर करके पंचम नरक भूमि में गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर नन्दन ने दीक्षा ग्रहण की, 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 397 से 341 तक (संक्षिप्त) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org