________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय] [293 इसी अवसर पर श्रीमुनिसुव्रत भगवान् के शिष्य श्रीसुव्रताचार्य पधारे / उनका वैराग्यपूर्ण प्रवचन सुन कर राजा पद्मोत्तर और उनके ज्येष्ठपुत्र विष्णु कुमार को संसार से वैराग्य हो गया। राजा पद्मोत्तर ने युवराज महापद्म का राज्याभिषेक करके विष्णुकुमार सहित दीक्षा ग्रहण की। कुछकाल के पश्चात् पद्मोत्तर राजर्षि ने केवलज्ञान प्राप्त किया और विष्णुकुमार मुनि ने उग्र तपश्चर्या से अनेक लब्धियाँ प्राप्त की। एक बार श्रीसुव्रताचार्य अपनी शिष्यमण्डली सहित हस्तिनापुर चातुर्मास के लिए पधारे / नमुचि मंत्री ने पूर्व वैर लेने की दृष्टि से महापद्म चक्री से अपना वरदान मांगा कि मुझे यज्ञ करना है और यज्ञसमाप्ति तक मुझे अपना राज्य दें। महापद्म ने सरलभाव से उसे राज्य सौंप दिया। वीन राजा को बधाई देने के लिए जैनमुनियों के सिवाय अन्य सब वेष वाले साधु एवं तापस गए / इससे कुपित होकर नमुचि ने आदेश निकाला-'पाज से 7 दिन के बाद कोई भी जैन साधु मेरे राज्य में रहेगा तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा।' आचार्य ने परस्पर विचारविनिमय करके एक लब्धिधारी मुनि विष्णुकुमार को लाने के लिए भेजा। वे पाए। सारी परिस्थिति समझकर विष्णुकुमार आदि मुनियों ने नमुचि को बहुत समझाया, परन्तु वह अपने दुराग्रह पर अड़ा रहा / विष्णुकुमार मुनि ने उससे तीन पैर (कदम) जमीन मांगी / जब नमुचि वचनबद्ध हो गया तो विष्णुकुमार मुनि ने बैंक्रियलब्धि का प्रयोग कर अपना शरीर मेरुपर्वत जितना विशाल बना लिया। दुष्ट नमुचि को पृथ्वी पर गिरा कर, अपना एक पैर चुल्लहेमपर्वत पर और दूसरा चरण जम्बूद्वीप की जगती पर रखा, फिर नमुचि से पूछा-कहो, यह तीसरा चरण कहाँ रखा जाए? अपने चरणाघातों से समस्त भूमण्डल को प्रकम्पित करने वाले विष्णुकुमार मुनि के उग्र पराक्रम एवं विराट रूप को देख कर नमचि ही क्या, सर्व राजपरिवार, देव, दानव श्रादि भयभीत और क्षब्ध हो उठे थे। महापद्म चक्रवर्ती ने आकर सविनय वन्दन करके अधम मन्त्री द्वारा श्रमणसंघ की की गई पाशातना के लिए क्षमायाचना की। अन्य सुरासुरों एवं राजपरिवार की प्रार्थना से मुनिवर ने अपना विराट शरीर पूर्ववत् कर लिया। चक्रवर्ती महापद्म ने दुष्ट पापात्मा नमुचि को देशनिकाला दे दिया। विष्णकुमार मुनि आलोचना और प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि करके तप द्वारा केवलज्ञानी हए / क्रमशः मुक्त हुए। महापद्म चक्रवर्ती ने चिरकाल तक महान् समृद्धि का उपभोग कर अन्त में राज्य आदि सर्वस्व का त्याग करके 10 हजार वर्ष तक उग्र आचार का पालन किया। अन्त में घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए।' हरिषेण चक्रवती 42. एगच्छत्तं पसाहिता महिं माणनिसूरणो। हरिसेणो मणुस्सिन्दो पत्तो गइमणुत्तरं // [42] शत्रु के मानमर्दक हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी को एकच्छत्र साध (अपने अधीन) करके अनुत्तरर्गात (मोक्षगति) प्राप्त की। 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. 2, पत्र 66 से 74 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org