________________ 292] [उत्तराध्ययनसूत्र दीक्षा ग्रहण की। अरिहन्तसेवा आदि बीस स्थानकों की आराधना से उन्होंने तीर्थक रनामकर्म का उपार्जन किया। चिरकाल तक तपश्चरण एवं महाव्रतों का पालन करके अन्त में अनशन करके आयुष्य पूर्ण होने पर नौवें अवेयक में श्रेष्ठ देव हुए। वहाँ से च्यवन कर वे हस्तिनापुर के सुदर्शन राजा की रानी देवी की कुक्षि में अवतरित हए। गर्भ का समय पूर्ण होने पर रानी ने कांचनवर्ण वाले पत्र को जन्म दिया। माता ने स्वप्न में रत्न का अर--चक्र का पारा देखा था, तदनुसार पुत्र का नाम 'पर' रखा / अरनाथ ने यौवन में पदार्पण किया तो उनका विवाह अनेक राजकन्याओं के साथ किया गया। तत्पश्चात् इन्हें राज्य का भार सौंप कर सुदर्शन राजा ने रानी-सहित सिद्धाचार्य से दीक्षा ग्रहण की। राजा अरनाथ ने सम्पूर्ण भारत क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित करके चक्रवर्तीपद प्राप्त किया। लोकान्तिक देवों ने तीर्थप्रवर्तन के लिए प्रार्थना की तो अरनाथ ने वर्षीदान दिया। फिर अपने पुत्र को राज्य सौंप कर एक हजार राजाओं के साथ प्रवजित हुए। तीन वर्ष बाद उसी सहस्राम्रवन में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई / तीर्थ रचना की। अरनाथ भगवान् ने कुल 84 हजार वर्ष की आयु पूर्ण करके अन्त में सम्मेतशिखर पर हजार साधुओं के साथ जा कर अनशन करके एक मास के पश्चात् आयुष्य पूर्ण होते ही सिद्धि प्राप्त की।' महापद्म चक्रवर्ती द्वारा तपश्चरण 41. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टो नराहिओ। चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे॥ [41] समग्र भारतवर्ष का (राज्य-) त्याग कर, उत्तम भोगों का परित्याग करके महापद्म चक्रवर्ती ने तपश्चरण किया / विवेचन-महापद्मचक्री की जीवनगाथा हस्तिनापुर में इक्ष्वाकुवंशी पद्मोत्तर नामक राजा था। उसकी ज्वाला नाम की रानी ने सिंह का स्वप्न देखा / उससे विष्णु नामक एक पुत्र हुया, फिर जब 14 महास्वप्न देखे तो महापद्म नामक पुत्र हुना, दोनों पुत्रों ने कलाचार्य से समग्र कलाएँ सीखीं। वयस्क होने पर महापद्म को अधिक पराक्रमी एवं योग्य समझ कर पद्मोत्तर राजा ने उसे युवराज पद दिया / हस्तिनापुर राज्य के सीमावर्ती राज्य में किला बना कर सिंहबल नामक राजा रहता था। बह बारबार हस्तिनापुर राज्य में लूटपाट करके अपने दुर्ग में घुस जाता। उस समय महापद्म का मंत्री नमुचि था, जो साधुओं का द्वेषी था / महापद्म ने सिंहबल को पकड़ लाने का उपाय नमुचि से पूछा / नमुचि ने उसको पकड़ लाने का बीड़ा उठाया और शी ही ससैन्य जाकर सिंहबल के दुर्ग को नष्ट भ्रष्ट करके उसे बांध कर ले आया। उसके इस पराक्रम से प्रसन्न होकर यथेष्ट मांगने को कहा / नमुचि ने कहा- मैं यथावसर आपसे मांगूगा / इसके पश्चात् महापद्म ने दीर्घकाल तक राज्य से बाहर रह कर अनेक पराक्रम के कार्य किये / अन्त में उसके यहाँ चक्रादि रत्न उत्पन्न हुए / तत्पश्चात् भरतक्षेत्र के 6 खण्ड साध लिये / चक्रवर्ती के रूप में उसने अपने माता-पिता के चरणों में नमन किया। माता-पिता उसकी समृद्धि को देख अत्यन्त हर्षित हुए। 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा.३, पृ. 240 से 246 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org