________________ 290] [उत्तराध्ययनसूत्र शरीररोग की चिकित्सा करते हैं, कर्मरोग की नहीं। यह सुन कर मुनि ने अपनी खड़ी हुई अंगुली पर थूक लगा कर उसे स्वर्ण-सी बना दी और देवों से कहा-शरीररोग की तो मैं इस प्रकार से चिकित्सा कर सकता हूँ, फिर भी चिकित्सा करने की मेरी इच्छा नहीं है / देव बोले- कर्मरूपी रोग का नाश करने में तो आप ही समर्थ हैं / देवों ने उनकी धीरता एवं सहिष्णुता की अत्यन्त प्रशंसा की और नमस्कार करके चले गए / सनत्कुमार राजर्षि तीन लाख वर्ष की आयुष्य पूर्ण करके अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर अनशन करके आयुष्यक्षय होने पर तीसरे देवलोक में गए। वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यजन्म धारण करके मोक्ष जाएँगे।' शान्तिनाथ चक्रवर्ती को अनुत्तरगति प्राप्त - 38. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्डियो। सन्ती सन्तिकरे लोए पत्तो गइमणुत्तरं // [38] महान् ऋद्धिसम्पन्न और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष (के राज्य) का त्याग करके अनुत्तरगति (मुक्ति) प्राप्त की। विवेचन-मेघरथ राजा के भव में एक शरणागत कबूतर को बचाने के लिए प्राणों की बाजी लगाने से तथा देवियों द्वारा अट्टम प्रतिमा के समय उनकी दृढ़ता की परीक्षा करने पर उत्तीर्ण होने से एवं संसार से विरक्त होकर मेघरथ राजर्षि ने अपने छोटे भाई दृढरथ सात सौ पत्रों और चार हजार राजाओं सहित श्रीघनरथ तीर्थकर से दीक्षा ग्रहण करने से और अपने प्रार्जवगुणों के कारण राजर्षि द्वारा अरिहंतसेवा, सिद्धसेवा आदि बीस स्थानकों के प्राराधन से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया / वहाँ से ग्रायुध्य पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव हुए। सर्वार्थ सिद्ध से च्यव कर मेघरथ राजर्षि का जीव हस्तिनापुर नगर के विश्वसेन राजा की रानी अचिरादेवी की कुक्षि में अवतरित हुआ। ठीक समय पर मृगलांछन वाले पुत्र को जन्म दिया / यह पुत्र गर्भ में आया तब फैले हुए महामारी आदि उपद्रव शान्त हो गए, यह सोचकर राजा ने पुत्र का जन्म-महोत्सव करके उसका 'शान्तिनाथ' नाम रखा / वयस्क होने पर यशोमती अादि राज थ उनका पाणिग्रहण हमा। जब ये 25 हजार वर्ष के हए तब राजा विश्वसेन ने इन्हें राज्य सौंपकर प्रात्मकल्याण सिद्ध किया / शान्तिनाथ राजा को राज्य करते हुए 25 हजार वर्ष हुए तव एक बार उनकी प्रायुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। भारतवर्ष के छह खण्डों पर विजय प्राप्त की / फिर देवों और सर्व राजाओं ने मिलकर 12 बर्ष तक चक्रवर्तीपद का अभिषेक किया / जब 25 हजार वर्ष चक्रवर्ती पद भोगते हुए हो गये तब लोकान्तिक देव पाकर प्रभु से प्रार्थना करने लगे-स्वामिन् ! तीर्थप्रवर्तन कीजिए / अतः प्रभु ने वार्षिक दान दिया। अपना राज्य अपने पुत्र चक्रायुध को सौंप कर सहस्राम्रवन में हजार राजाओं के साथ दीक्षा अंगीकार की / एक वर्ष पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में चक्रायुध राजा सहित 35 अन्य राजाओं ने दीक्षा ली। ये 36 मुनि शान्तिनाथ भगवान् के गणधर के रूप में हुए / तत्पश्चात् चिरकाल तक भूमण्डल में विचरण किया / अन्त में दीक्षादिवस से 25 हजार वर्ष व्यतीत होने पर प्रभु ने सम्मेतशिखर पर पदार्पण 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर से प्रकाशित) भा. 2, पत्र 34 से 43 तक (ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, प. 181 से 210 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org