________________ अठारहवां अध्ययन : संजयीय] [289 विवेचन-सनत्कुमार चक्रवर्ती की संक्षिप्त जीवनी कुरुजांगल देशवर्ती हस्तिनापुर नगर के राजा अश्वसेन की रानी सहदेवी की कुक्षि से सनत्कुमार का जन्म हुआ / हस्तिनापुरनिवासी सूर नामक क्षत्रिय का पुत्र महेन्द्रसिंह उसका मित्र था। एक बार अश्वक्रीड़ा करते हुए युवक सनत्कुमार का अश्व विपरीत शिक्षा वाला होने से उसे बहुत दूर ले गया / सब साथी पीछे रह गए। उसकी खोज के लिए महेन्द्रसिंह गया / बहुत खोज करने पर उसका पता लगा। महेन्द्रसिंह ने सनत्कुमार के पराक्रम का सारा वृत्तान्त सुना / दोनों कुमार हस्तिनापुर आए। पिता ने शुभ मुहूर्त में सनत्कुमार का राज्याभिषेक किया। उसके मित्र महेन्द्रसिंह को सेनापति बनाया। तत्पश्चात् अश्वसेन और सहदेवी दोनों ने दीक्षा ग्रहण करके मनुष्यजन्म सार्थक किया / कुछ समय बाद सनत्कुमार चक्रवर्ती हो गए / छहों खंडों पर अपनी विजयपताका फहरा दी।। सौधर्मेन्द्र की सभा में ईशानकल्प के किसी देव की उद्दीप्त देहप्रभा देखकर देवों ने पूछा-- क्या ऐसी उत्कृष्ट देहप्रभा वाला और भी कोई है ? इन्द्र ने हस्तिनापुर में कुरुवंशी सनत्कुमार चक्रवर्ती को सौन्दर्य में अद्वितीय बताया। इस पर विजय, वैजयन्त नामक दो देवों ने इन्द्र के वचनों पर विश्वास न करके स्वयं परीक्षा करने की ठानी। वे दोनों देव ब्राह्मण के वेष में आए और तेलमर्दन कराते हुए सनत्कुमार चक्री के रूप को देखकर अत्यन्त विस्मित हुए / सनत्कुमार ने उनसे पूछ कर जब यह जाना कि मेरे अद्वितीय सौन्दर्य को देखने की इच्छा से आए हैं तो उन्होंने रूपवित होकर कहा-जब मैं सर्वालंकार-विभूषित होकर सिंहासन पर बैठे तब मेरे रूप को देखना। दोनों देवों ने जब सर्ववस्त्रालंकार विभूषित चक्रवर्ती को सिंहासन पर बैठे देखा तो खिन्नचित्त से कहा-अव आपका शरीर पहले जैसा नहीं रहा / चक्रवर्ती ने पूछा-इसका क्या प्रमाण है ? देव--प्राप थक कर इस बात की स्वयं परीक्षा कर लीजिए। चक्री ने थक कर देखा तो उसमें कोड़े लबलाते नजर अाए तथा अपने शरीर पर दृष्टि डाली तो उसके भी रूप, कान्ति और लावण्य आदि फीके प्रतीत हुए। यह देख चक्रवर्ती ने विचार किया- मेरा यह शरीर, जो अद्वितीय सुन्दर था, आज अल्पसमय में ही अनेक व्याधियों से ग्रस्त, निस्तेज तथा असुन्दर बन गया है / इस असार शरीर और शरीर से सम्बन्धित धन, जन, वैभव आदि में आसक्ति एवं गर्व करना अज्ञान है। इस शरीर से भोगों का सेवन उन्माद है, परिग्रह अनिष्टग्रहवत् है / इस सब पर ममत्व का त्याग करके स्वपरहितसाधक शाश्वतसुखप्रदायक सर्वविरति-चारित्र अंगीकार करना ही श्रेयस्कर है। ऐसा दृढ़ निश्चय करके चक्री ने अपने पुत्र को राज्य सौंप कर विनयंधराचार्य के पास मुनिदीक्षा धारण कर लो / राजर्षि के प्रति गाढ़ स्नेह के कारण समस्त राजा, रानियाँ, प्रधान आदि छह महीने तक उनके पीछे-पीछे घूमे और वापस राज्य में लौटने की प्रार्थना की; किन्तु राजर्षि ने उनकी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा / निराश होकर वे सब वापस लौट गए। फिर राजर्षि उग्र तपश्चर्या करने लगे। बेले के पारणे में उन्हें अन्त, प्रान्त, तुच्छ, नीरस आहार मिलता, जिससे उनके शरीर में कण्डू , कास, श्वास आदि 7 महाव्याधियाँ उत्पन्न हुई, जिन्हें उन्होंने 700 वर्ष तक समभाव से सहन किया। इसके फलस्वरूप राषि प्रामशौषधि, शकदोषधि. मत्रौषधि औषधि आदि अनेक प्रकार को लब्धियाँ प्राप्त हुई, फिर भी राजर्षि ने किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं की। इन्द्र के मुख से महर्षि की प्रशंसा सुन कर वे ही (पूर्वोक्त) दो देव वैद्य का रूप धारण करके परीक्षार्थ अाए / उनसे व्याधि की चिकित्सा कराने का बार-बार आग्रह किया तो मुनि ने कहा-ग्राप कर्मरोग को चिकित्सा करते हैं या शरीररोग की ? उन्होंने कहा हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org