________________ 288] [उत्तराध्ययनसून प्रस्थान किया। घूमते-घूमते वे सब विशिष्ट शोभासम्पन्न हैम पर्वत पर चढ़े / सहसा विचार आया कि इस पर्वत की रक्षा के लिए इसके चारों ओर खाई खोदना चाहिए / फलतः वे सब दण्डरत्नों से खाई खोदने लगे / खोदते-खोदते विशेष भूमि के नीचे ज्वलनप्रभ नागराज अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। विनयपूर्वक उसे शान्त किया। परन्तु फिर दूसरी बार उस खाई को गंगा नदी के जल से भरने का उपक्रम किया / नागराज ज्वलनप्रभ इस बार अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने दृष्टिविष सर्प भेजे, उन्होंने सभी कुमारों (सागरपुत्रों) को नेत्र की अग्निज्वालाओं से भस्म कर दिया। सेना में हाहाकार मच गया / चिन्तित सेना से एक ब्राह्मण ने चक्रवर्ती पुत्रों के मरण का समाचार सुना तो उसने सगर चक्रवर्ती को विभिन्न युक्तियों से समझाया / पहले तो वे पुत्र शोक से मूच्छित होकर गिर पड़े, बाद में स्वस्थ हुए। उन्हें संसार से विरक्ति हो गई / कुछ समय बाद जह्न कुमार के पुत्र भगीरथ को उन्होंने राज्य सौंपा और स्वयं ने अजितनाथ भगवान् से दीक्षा ग्रहण की / बहुत तपश्चर्या की और कर्मक्षय करके सिद्ध पद प्राप्त किया।' चक्रवर्ती मघवा ने प्रव्रज्या अंगीकार की 36. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्ढिओ। पव्वज्जमब्भुवगओ मघवं नाम महाजसो // [36] महान् ऋद्धिमान्, महायशस्वी मघवा नामक तीसरे चक्रवर्ती ने भारतवर्ष (षट्खण्डव्यापी) का (साम्राज्य) त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार की। विवेचन मघवा चक्रवर्ती द्वारा प्रव्रज्या धारण-श्रावस्ती के समुद्रविजय राजा की रानी भद्रा से एक पुत्र हुअा, जिसका नाम 'मघवा' रखा गया / युवावस्था में आने पर समुद्रविजय ने मघवा को राज्य सौंपा / भरतक्षेत्र को साध कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया / चिरकाल चक्रवर्ती के वैभव का उपभोग करते हुए एक दिन उन्हें धर्मघोषमुनि का धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्ति हो गई। विचार किया कि--'संसार के ये सभी रमणीय पदार्थ कर्मबन्ध के हेतु हैं तथा अस्थिर हैं, बिजली की चमक की तरह क्षणविध्वंसी हैं। अत: इन सब रमणीय भोगों का त्याग करके मुझे प्रात्मकल्याण की साधना करनी चाहिए।' यह विचार करके मघवा चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को राज्य सौंप कर प्रव्रज्या ग्रहण की। क्रमशः चारित्र-पालन करके, उग्र तपश्चर्या करके पांच लाख वर्ष का प्रायुष्य पूर्ण करके वे सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में देव बने / सनत्कुमार चक्रवर्ती द्वारा तपश्चरण 37. सणंकुमारो मणुस्सिन्दो चक्कवट्टी महिड्ढिओ। पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे॥ [37] महान् ऋद्धिसम्पन्न मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को राज्य पर स्थापित करके तप (-चारित्र) का आचरण किया। 1 उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 153 से 174 तक का सारांश 2. उत्तरा. प्रियशिनी टीका, भा. 3, पृ. 177 से 179 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org