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________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय 287 संवेग को प्राप्त चक्रवर्ती क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए। फिर शीघ्र ही चार घातिकमों का क्षय करके भाव चारित्री बनकर केवलज्ञान प्राप्त किया। ठीक उसी समय विनयावनत होकर शक्रेन्द्र उपस्थित हुया और हाथ जोड़कर कहा-हे पूज्य ! अब आप द्रव्यलिंग अंगीकार करें, जिससे हम दीक्षामहोत्सव तथा केवलज्ञानमहोत्सव करें। यह सुनकर उन्होंने मूनिवेष धारण किया और अपने मस्तक का पंचमुष्टि लोच किया। फिर बादलों में से सूर्य निकलता है, वैसे ही राजर्षि शीशमहल से निर्लिप्त होकर बाहर निकले / भरत महाराज को मुनिवेष में देखकर 10 हजार अन्य राजा भी मुनिधर्म में दीक्षित होकर उनके अनुयायी बन गए। वे कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवलीपर्याय में भूमण्डल में भव्यजीवों को सद्धर्मपान कराते हुए विचरण करके अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए।' सगर चक्रवर्ती को संयमसाधना से निर्वाणप्राप्ति 35. सगरो वि सागरन्तं भरहवासं नराहियो। इस्सरियं केवलं हिच्चा दयाए परिनिव्वुडे / [35] सगर नराधिप (चक्रवर्ती) भी सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं परिपूर्ण ऐश्वर्य का त्याग कर दया(--संयम) की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। विवेचन-सागरान्तं-तीन दिशाओं में समुद्रपर्यन्त (और उत्तर दिशा में हिमवत्-पर्यन्त / ) केवलं इस्सरियं---केवल अर्थात्-परिपूर्ण या अनन्यसाधारण ऐश्वर्य अर्थात्-प्राज्ञा और वैभव आदि। दयाए परिनिव्वुडे-दया का अर्थ यहाँ संयम किया गया है। अर्थात् संयमसाधना से वे परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। सगर चक्रवर्ती की संयमसाधना-अयोध्या नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा जितशत्रु और विजया रानी से 'अजित' नामक पुत्र हुआ, जो आगे चलकर द्वितीय तीर्थकर हुए / जितशत्रु राजा का छोटा भाई सुमित्र युवराज था, उसकी रानी यशोमती से एक पत्र हा, उसका नाम रखा गयावे आगे चल कर चक्रवर्ती हुए। दोनों कुमारों के वयस्क होने पर जितशत्रु राजा ने अजित को राजगद्दी पर बिठाया और सगर को युवराज पद दिया। जितशत्र राजा ने सुमित्र सहित दीक्षा ग्रहण की। - अजित राजा ने कुछ समय तक राज्य का पालन करके धर्मतीर्थप्रवर्तन का समय पाने, पर सगर को राज्य सौंप कर चारित्र ग्रहण किया. तीर्थ स्थापना की। सगर ने राज्य करते हए भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर विजय प्राप्तकर चक्रवर्ती पद पाया। सगर चक्रवर्ती के 10 हजार पत्र हए / उनमें सबसे बड़ा जह्न कुमार था। उस के विनयादि गुणों से सन्तुष्ट होकर सगरचक्री ने उसे इच्छानुसार मांगने को कहा / इस पर उसने कहा-मेरी इच्छा है कि मैं सब भाइयों के साथ चौदह रत्न एवं सर्वसैन्य साथ में लेकर भूमण्डल में पर्यटन करूं / सगर ने स्वीकृति दी / जह्न कुमार ने 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. 2, पत्र 27 (ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ. 151 2. बृहद्वत्ति, पत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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