SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 286] [उत्तराध्ययनसून पुरुष प्रक्रिया अर्थात् –अक्रियावाद, जो मिथ्यादृष्टियों द्वारा परिकल्पित तत्-तदनुष्ठानरूप है, उसका त्याग करे।' भरत चक्रवर्ती भी इसी उपदेश से प्रवजित हुए 34. एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थ–धम्मोवसोहियं / भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए / [34] अर्थ और धर्म से उपशोभित इसी पुण्यपद (पवित्र उपदेश-वचन) को सुन कर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और काम-भोगों को त्याग कर प्रवजित हुए थे। विवेचन-अत्थ-धम्मोवसोहियं : विशेषार्थ-साधना से जिसे प्राप्त किया जाए, वह अर्थ कहलाता है, प्रसंगवश यहाँ स्वर्ग, मोक्ष प्रादि अर्थ हैं। इस अर्थ की प्राप्ति में उपायभूत अर्थ श्रुत-चारित्ररूप है, इस अर्थ और धर्म से उपशोभित / पुण्णपयं : तीन अर्थ-(१) पुण्य अर्थात् पवित्र-निष्कलंक-दूषणरहित, पद अर्थात् जिनोक्तसूत्र, अथवा (2) पुण्य अर्थात् पुण्य का कारणभूत अथवा (3) पूर्णपद अर्थात् सम्पूर्णज्ञान / ' भरत चक्रवर्ती द्वारा प्रव्रज्या-ग्रहण-भरत चक्रवर्ती प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। भगवान् के दीक्षित होने के बाद ही उन्हें चक्रवर्तीपद प्राप्त हुआ था। भरतक्षेत्र (भारतवर्ष) के छह खण्डों के वे अधिपति थे। सभी प्रकार के कामसुख एवं वैभव-विलास की सामग्री उन्हें प्राप्त थी। अपने वैभव के अनुरूप वे दान एवं सार्मिकवात्सल्य भी करते थे / दीन-हीन जनों की रक्षा के लिए प्रतिक्षण तत्पर रहते थे। एक दिन भरत चक्रवर्ती मालिश, उबटन और स्नान करके सर्ववस्त्रालंकारों से विभूषित होकर अपने शीशमहल में आए। वे दर्पण में अपने शरीर की शोभा का निरीक्षण कर रहे थे। तभी एक अंगूठी अंगुली से निकल कर गिर पड़ी / दर्पण में अंगूठी से रहित अंगुली शोभारहित लगी। चक्रवर्ती ने दूसरी अंगुली से अंगूठी उतारी तो वह भी सुहावनी नहीं लगी। फिर क्रमशः एक-एक अलंकार उतारते हए अन्त में शरीर से समस्त अलंकार उतार दिये। अब शरीर दर्पण में देखा तो शोभारहित प्रतीत हया / इस पर चक्रवर्ती ने चिन्तन किया—अहो! यह शरीर कितना असन्दर है। इसका अपना सौन्दर्य तो कुछ भी नहीं है। यह शरीर स्नानादि से संस्कारित करके वस्त्राभूषण आदि पहनाने से ही सुन्दर लगता है / ऐसे मलमूत्र से भरे घृणित, अपवित्र और प्रसार देह को सुन्दर मान कर मूढ़ लोग इसमें आसक्त होकर इस शरीर को वस्त्राभूषण आदि से सुशोभित करके, इसका रक्षण [ इसे उत्तम खानपान से पुष्ट बनाने के लिए अनेक प्रकार के पापकर्म करते हैं। वास्तव में वस्त्राभषणादि या मनोज्ञ खानपान आदि सभी वस्तुएँ इस असुन्दर शरीर के सम्पर्क से अपवित्र और विनष्ट हो जाती हैं। परन्तु मोक्ष के साधनरूप चिन्तामणिसम इस मनुष्यजन्म को पाकर शरीर के लिए पापकर्म करके मनुष्यजन्म को हार जाना ठीक नहीं है / इत्यादि शुभध्यान करते हुए अधिकाधिक 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 447 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 448 3. वही, पत्र 448 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy