________________ अठारहवां अध्ययन : संजयीय [285 क्षत्रियमुनि द्वारा क्रियावाद से सम्बंधित उपदेश 30. नाणारुइं च छन्दं च परिवज्जेज्ज संजए। अणट्ठा जे य सम्बत्था इइ विज्जामणुसंचरे // [30] नाना प्रकार की रुचि (अर्थात्-क्रियावादी आदि के मत वाली इच्छा) तथा छन्दों (स्वमतिपरिकल्पित विकल्पों) का और सब प्रकार के (हिंसादि) अनर्थक व्यापारों (कार्यो) का संयतात्मा मुनि को सर्वत्र परित्याग करना चाहिए। इस प्रकार (सम्यक् तत्त्वज्ञान रूप) विद्या का लक्ष्य करके (तदनुरूप संयमपथ पर) संचरण करे। 31. पडिक्कमामि पसिणाणं परमन्तेहि वा पुणो। __ अहो उठ्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे // [31] शुभाशभसूचक प्रश्नों से और गृहस्थों (पर)की मंत्रणानों से मैं निवृत्त (दूर) रहता हूँ। अहो ! अहर्निश धर्म के प्रति उद्यत महात्मा कोई विरला होता है / इस प्रकार जान कर तपश्चरण करो। 32. जं च मे पुच्छसी काले सम्मं सुद्धण चेयसा / ताई पाउकरे बुद्ध तं नाणं जिणसासणे // [32] जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे बुद्ध सर्वज्ञ श्री महावीर स्वामी) ने प्रकट किया है। अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है। 33. किरियं च रोयए धीरे अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिद्विसंपन्ने धम्म चर सुदुच्चरं / / [33] धीर साधक क्रियावाद में रुचि रखे और प्रक्रिया (वाद) का त्याग करे / सम्यग्दृष्टि से दृष्टिसम्पन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो। विवेचन-पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहि वा पुणो : क्षत्रियमुनि कहते हैं- मैं शुभाशुभसूचक अंगुष्ठप्रश्न आदि से अथवा अन्य साधिकरणों से दूर रहता हूँ / विशेष रूप से परमंत्रों से अर्थात् -- गृहस्थकार्य सम्बन्धी पालोचन रूप मंत्रणाओं से दूर रहता हूँ, क्योंकि वे अतिसावध हैं।' बुद्ध : दो भावार्थ---(१) बुद्ध (सर्वज्ञ महावीर स्वामी) ने प्रकट किया। (2) स्वयं सम्यकबुद्ध (अविपरीत बोध वाले) चित्त से उसे मैं प्रकट (प्रस्तुत) कर सकता हूँ। कैसे? इस विषय में क्षत्रियमुनि कहते हैं—जगत् में जो भी यथार्थ वस्तुतत्त्वावबोधरूप ज्ञान प्रचलित है, वह सब जिनशासन में है। अत: मैं जिनशासन में ही स्थित रह कर उसके प्रसाद से बुद्ध-समस्तवस्तुतत्त्वज्ञ हुआ हूँ / तुम भी जिनशासन में स्थित रह कर वस्तुतत्वज्ञ (बुद्ध) बन जानोगे; यह आशय है / किरियं रोयए : क्रिया अर्थात् जीव के अस्तित्व को मान कर सदनुष्ठान करना क्रियावाद है, उसमें उन-उन भावनाओं से स्वयं अपने में रुचि पैदा करे तथा धीर (मिथ्यादृष्टियों से अक्षोभ्य) 1. वृहद्वृत्ति, पत्र 446 2. वही, पत्र 447 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org