________________ 284] [उत्तराध्ययनसून में अधिक ही विनय के योग्य पात्र माना जाता है। गुण ज्ञान, ध्यान के अनुष्ठान रूप होते हैं / देवदानव आदि में अज्ञान, आश्रव से अविरति आदि दोष होने से वे गुणाधिक कैसे माने जा सकते हैं ? (4) अज्ञानवाद–अज्ञानवादी मानते हैं कि अज्ञान ही श्रेयस्कर है / ज्ञान होने से कई जगत् को ब्रह्मादिविवर्तरूप, कई प्रकृति-पुरुषात्मक, दूसरे द्रव्यादि षड् भेद रूप, कई चार आर्यसत्यरूप, कई विज्ञानमय, कई शून्य रूप, यों विभिन्न मतपन्थ है, फिर आत्मा को कोई नित्य कहता है, कोई अनित्य, यों अनेक रूप से बताते हैं, अतः इनके जानने से क्या प्रयोजन है ? मोक्ष के प्रति ज्ञान का कोई उपयोग नहीं है। केवल कष्ट रूप तपश्चरण करना पड़ता है। घोर तप, व्रत आदि से ही मोक्ष प्राप्त होता है। अतः ज्ञान अकिञ्चित्कर है / __ जैनदर्शन क्रियावादी है, पर वह एकान्तवादी नहीं है, इसलिए सम्यकवाद है। क्षत्रियमहर्षि के कहने का प्राशय यह है कि मैं क्रियावादी है, परन्तु अात्मा को कञ्च नित्य और कञ्चित् (पर्यायदृष्टि से) अनित्य मानता हूँ। इसीलिए कहा है-'मैं परलोकगत अपने आत्मा को भलीभांति जानता हूँ।' परलोक के अस्तित्व का प्रमाण : अपने अनुभव से 28. अहमासी महापाणे जुइमं वरिससओक्मे / जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा // [28] मैं (पहले) महाप्राण नामक विमान में वर्षशतोपम आयु वाला द्युतिमान् देव था। मनुष्यों की सौ वर्ष की पूर्ण आयु के समान (देवलोक की) जो दिव्य आयु है, वह पाली (पल्योपम) और महापाली (सागरोपम) की पूर्ण (मानी जाती) है / 29. से चुए बम्भलोगाओ माणुस्सं भवमागए। - अप्पणो य परेसिं च आउं जाणे जहा तहा // [26] ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की प्रायु को भी (यथार्थ रूप से) जानता हूँ / विवेचनमहापाणे--पांचवें ब्रह्मलोक देवलोक का महाप्राण नामक एक विमान / वरिससओवमे-जैसे यहाँ इस समय सौ वर्ष की आयु परिपूर्ण मानी जाती है, वैसे मैं (क्षत्रियमुनि) ने वहाँ (देवलोक में) परिपूर्ण सौ वर्ष को दिव्य आयु का भोग किया। जो कि यहाँ के वर्षशत के तुल्य वहाँ की पाली (पल्योपम-प्रमाण) और महापाली (सागरोपम-प्रमाण) आयु पूर्ण मानी जाती है / यह उपमेय काल है / असंख्यात काल का एक पल्य होता है और दस कोटाकोटी पल्यों का एक सागरोपम काल होता है क्षत्रियमुनि द्वारा जातिस्मरणरूप अतिशय ज्ञान की अभिव्यक्ति-आशय यह है कि मैं अपना और दूसरे जीवों का आयुष्य यथार्थ रूप से जानता हूँ / अर्थात्-जिसका जिस प्रकार जितना आयुष्य होता है, उसी प्रकार से उतना मैं जानता हूँ। 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 443 से 445 तक का सारांश / 2. बृहद्वत्ति, पत्र 445 3. (क) वही, पत्र 446 (ख) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद भा. 2, भावनगर से प्रकाशित), पृ. 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org