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________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय] [283 24. इइ पाउकरे बुद्ध नायए परिनिव्वुडे / विज्जाचरणसंपन्ने सच्चे सच्चपरक्कमे / / [24] (हमने अपने मन से नहीं; ) बुद्ध-तत्त्ववेत्ता, परिनिर्वत्त-उपशान्त, विद्या और चरण से सम्पन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने (भी) ऐसा प्रकट किया है। 25. पडन्ति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो। __दिव्वं च गई गच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं / [25] जो (एकान्त क्रियावादी आदि असत्प्ररूपक) व्यक्ति पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं / जो मनुष्य आर्य धर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं। 26. मायावुइयमेयं तु मुसाभासा निरत्थिया / ___ संजममाणो वि अहं वसामि इरियामि य // [26] (क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का) यह सब कथन मायापूर्वक है, (अतः) वह मिथ्यावचन है, निरर्थक है / मैं उन मायापूर्ण एकान्तवचनों से बच कर रहता और चलता हूँ। 27. सब्वे ते विइया मझ मिच्छादिट्री अणारिया। विज्जमाणे परे लोए सम्मं जाणामि अप्पगं / [27] वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं। मैं परलोक के अस्तित्व से अपने (आत्मा) को भलीभांति जानता हूँ। विवेचन–चार वादों का निरूपण–प्रस्तुत (सं. 23) गाथा में भगवान महावीर के समकालीन एकान्तवादियों के द्वारा अभिमत चार वादों का उल्लेख है / सूत्रकृतांगसूत्र में इन चारों के 363 भेद बताए गए हैं / यथा-क्रियावादियों के 180, अक्रियावादियों के 84, वैनयिकों के 32 और अज्ञानवादियों के 67 भेद हैं। (1) क्रियावाद-क्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को मानते हुए भी, वह व्यापक है अथवा अव्यापक, कर्ता है या अकर्ता, मूर्त है या अमूर्त ? ; इस विषय में विप्रपन्न हैं, अर्थात्-संशयग्रस्त हैं / (2) अक्रियावाद-प्रक्रियावादी वे हैं, जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते / वे आत्मा और शरीर को एक मानते हैं। अस्तित्व मानने पर शरीर के साथ एकत्व है या अन्यत्व है, इस विषय में वे अवक्तव्य रहना चाहते हैं / एकत्व मानने पर शरीर की अविनष्ट स्थिति में कभी मरण का प्रसंग नहीं आएगा, अन्यत्व मानने पर शरीर को छेद आदि करने पर वेदना के अभाव का प्रसंग आ जाएगा, इसलिए अवक्तव्य है। कई अक्रियावादी उत्पत्ति के अनन्तर ही आत्मा का प्रलय मानते हैं। (3) विनयवाद-विनयवादी विनय से ही मुक्ति मानते हैं / विनयवादियों का मानना है कि सुर, असुर, नृप, तपस्वी, हाथी, घोड़ा, मृग, गाय, भैंस, कुत्ता, सियार, जलचर, कबूतर, चिड़िया आदि को नमस्कार करने से क्लेशनाश होता है, विनय से श्रेय होता है, अन्यथा नहीं। किन्तु ऐसे विनय से न तो कोई पारलौकिक हेतु सिद्ध होता है, न इहलौकिक / लौकिक लोकोत्तर जगत् में गुणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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