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________________ 282] [उत्तराध्ययनसूत्र जनपद या प्रान्त को ही प्राचीनकाल में राष्ट्र कहा जाता था। एक ही राज्य में अनेक राष्ट्र होते थे। वर्तमान में राष्ट्र शब्द का अर्थ है-अनेक राज्यों (प्रान्तों) का समुदाय / ' पसन्नं ते तहा० : निष्कर्ष अन्तःकरण कलुषित हो तो बाह्य प्राकृति अकलुषित (प्रसन्ननिविकार) नहीं हो सकती। इसीलिए संजय राजर्षि की बाह्य आकृति पर से क्षत्रियमुनि ने उनके अन्तर की निर्विकारता का अनुमान किया था। संजय राजर्षि द्वारा परिचयात्मक उत्तर 22. संजओ नाम नामेणं तहा गोत्तेण गोयमो। गद्दभाली ममायरिया विज्जाचरणपारगा // [22] (संजय राजर्षि)--मेरा नाम संजय है। मेरा गोत्र गौतम है। विद्या (श्रुत) और चरण (चारित्र) में पारंगत 'गर्दभालि' मेरे प्राचार्य हैं। विवेचन-तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर में समावेश-पूर्वोक्त गाथा (सं. 21) में क्षत्रियमुनि द्वारा पांच प्रश्न पूछे गए हैं, किन्तु संजय राजर्षि ने प्रथम दो प्रश्नों का तो स्पष्ट उत्तर दिया है, किन्तु पिछले तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर दिया है कि मेरे प्राचार्य (गुरु) गर्दभालि हैं, जो श्रुत-चारित्र में पारंगत हैं / संजय राजर्षि का आशय यह है कि गर्दभालि प्राचार्य के उपदेश से मैं प्राणातिपात आदि का सर्वथा त्याग करके मुनि बना हूँ, उनसे मैंने ग्रहण (शास्त्राध्ययन) और प्रासेवन दोनों प्रकार की शिक्षाएँ ग्रहण की हैं, श्रुत और चारित्र में पारंगत मेरे आचार्य ने इनका मुक्तिरूप फल बताया है, इसलिए मैं मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से ही माहन (मुनि) बना है। प्राचार्यश्री का जैसा मेरे लिए उपदेश-अादेश है, तदनुसार चलता हूँ, यही उनकी सेवा है और उन्हीं के कथनानुसार मैं समस्त मुनिचर्या करता हूँ, यही मेरी विनीतता है। विज्जाचरण० : अर्थ---विद्या का अर्थ यहाँ श्रुतज्ञान है तथा चरण का अर्थ चारित्र है / निष्कर्ष-'माहन' पद से पंच महाव्रत रूप मूल गुणों की पाराधकता, प्राचार्यसेवा से गुरुसेवा में परायणता एवं आचार्याज्ञा-पालन से तथा आचार्य के उपदेशानुसार ग्रहणशिक्षा एवं प्रासेवनशिक्षा में प्रवृत्ति करने से उत्तरगुणों की आराधकता उनमें प्रकट की गई है। क्षत्रियमुनि द्वारा क्रियावादी आदि के विषय में चर्चा-विचारणा 23. किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं च महामुणी! एएहि घहिं ठाणेहि मेयन्ने कि पभासई // [23] (क्षत्रियमुनि)-महामुनिवर ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान, इन चार स्थानों के द्वारा (कई एकान्तवादी) मेयज्ञ (तत्त्वज्ञ) असत्य (कुत्सित) प्ररूपणा करते हैं। 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 411, 442-- राष्ट्र-ग्रामनगरादिसमुदायम् , 'मण्डलम् / (ख) 'राज्यं राष्ट्रादिसमुदायात्मकम्, राष्ट्र च जनपदं च। –राजप्रश्नीय. वृत्ति, पृ. 276 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 442 3. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र 442 (ख) प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 127 4. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 3, पृ. 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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