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________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय] [281 / [20] जिसने राष्ट्र का परित्याग करके दीक्षा ग्रहण कर ली, उस क्षत्रिय (मुनि) ने (एक दिन) संजय राजर्षि से कहा-(मुने ! ) जैसे आपका यह रूप (बाह्य प्राकार) प्रसन्न (निर्विकार) दिखाई दे रहा है, वैसे ही आपका मन (अन्तर) भी प्रसन्न दीख रहा है।' 21. किनामे ? किंगोत्ते ? कस्सट्टाए व माहणे? ___ कहं पडियरसी बुद्ध ? कहं विणीए त्ति वुच्चसि ? [21] (क्षत्रियमुनि)-'पापका क्या नाम है ? आपका गोत्र कौन-सा है ? आप किस प्रयोजन से माहन बने हैं ? तथा बुद्धों प्राचार्यों की किस प्रकार से सेवा (परिचर्या) करते हैं ? एवं आप विनयशील क्यों कहलाते हैं ?' __विवेचन-खत्तिए परिभासइ : तात्पर्य-किसी क्षत्रिय ने दीक्षा धारण कर ली / वह भी राजर्षि था / पूर्वजन्म में वह वैमानिक देव था। वहाँ से च्यवन करके उसने क्षत्रियकुल में जन्म लिया था / किसी निमित्त से उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो गई, जिससे संसार से विरक्त होकर उसने प्रवज्या धारण कर ली थी / उस मुनि का नाम न लेकर शास्त्रकार क्षत्रियकुल में उसका जन्म होने से क्षत्रिय नाम से उल्लेख करते हैं कि क्षत्रिय ने संजय राजर्षि से सम्भाषण किया। संजय राजषि से क्षत्रिय के प्रश्न : कब और कैसी स्थिति में? -जब संजय राजर्षि दीक्षा धारण करके कुछ ही वर्षों में गीतार्थ हो गए थे और निम्रन्थमुनि-समाचारी का सावधानीपूर्वक पालन करते हुए गुरु की आज्ञा से एकाको विहार करने लग गए थे। वे विहार करते हुए एक नगर में पधारे। वहीं इन अप्रतिबद्धविहारी क्षत्रियमुनि ने उनसे भेंट की और परिचय प्राप्त करने के लिए उक्त प्रश्न किये। पांच प्रश्न : आशय ---क्षत्रियमुनि के पांच प्रश्न थे-आपका नाम व गोत्र क्या है ? आप किसलिए मुनि बने हैं ? आप एकाकी विचरण कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में आचार्यों की परिचर्या कैसे और कब करते हैं ? तथा प्राचार्य के सान्निध्य में न रहने के कारण विनीत कैसे कहलाते हैं ? 2 माहणे-'माहन' शब्द का व्युत्पत्ति-जन्य अर्थ है जिसका मन, वचन और क्रिया हिंसानिवृत्ति-(मत मारो इत्यादि) रूप है, वह माहन है / उपलक्षण से हिंसादि सर्वपापों से विरत मुनि ही यहाँ माहन शब्द से गृहीत है / / राष्ट्र शब्द को परिभाषा-यहाँ 'राष्ट्र' ग्राम, नगर आदि का समुदाय या मण्डल है / एक 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 442 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 3, पृ. 125 2. (क) "स चैवं गृहीतप्रव्रज्योऽधिगतहेयोपादेयविभागो दशविधचक्रवालसामाचारीरतश्चानियतविहारितया विहरन् तथाविधसन्निवेशमाजगाम।" -उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 442 (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 3, पृ. 125 3. (क) माहणेत्ति मा वधीत्येवंरूपं मनो वाक क्रिया यस्याऽसौ माहनः। -बहवत्ति, पत्र 442 (ख) मा हन्ति कमपि प्राणिनं मनोवाक्कायर्यः स माहन:-प्रव्रजितः। -उत्तरा. प्रिय., भा. 3, पृ. 126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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