________________ 280] [उत्तराध्ययनसून तुम्हारा भी जीवन स्वल्प है / फिर इस स्वल्पकालिक जीवन के लिए क्यों हिंसा आदि पापों का उपार्जन कर रहे हो? इसी प्रकार यह जीवन और सौन्दर्य आदि सब चंचल हैं तथा मृत्यु के अधीन बनकर एक दिन तुम्हें राज्य, धन, कोश आदि सब छोड़कर जाना पड़ेगा, फिर इन वस्तुओं के मोह में क्यों मुग्ध हो रहे हो ? दाराणि य सुया चेव०-जिन स्त्री-पुत्रादि के लिए मनुष्य धन कमाता है, पापकर्म करता है, वे जीते-जी के साथी हैं, मरने के बाद कोई साथ में नहीं जाता। जीव अकेला ही अपने उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक में जाता है। वहाँ कोई भी सगे-सम्बन्धी दुःख भोगने नहीं आते; उसके मरने के बाद उसके द्वारा पापकर्म से या कष्ट से उपाजित धन आदि का उपभोग दूसरे ही करते हैं, वे उसकी कमाई पर मौज उड़ाते हैं।' निष्कर्ष-मुनि ने राजा को अभयदान देने, राज्यत्याग करने कर्मपरिणामों की निश्चितता एवं परलोकहित को सोचने तथा अनित्य जीवन, यौवन, बन्धु-बान्धव आदि के प्रति आसक्ति के त्याग का उपदेश दिया। विरक्त संजय राजा जिनशासन में प्रवजित 18. सोऊण तस्स सो धम्म अणगारस्स अन्तिए / महया संवेगनिव्वेयं समावन्नो नराहिवो / / / [18] उन गर्दभालि अनगार (के पास) से महान् (श्रुत-चारित्ररूप) धर्म (का उपदेश) श्रवण कर वह संजय नराधिप महान् संवेग और निर्वेद को प्राप्त हुआ। 19. संजओ चइउं रज्जं निक्खन्तो जिणसासणे / गद्दभालिस्स भगवो अणगारस्स अन्तिए / [16] राज्य का परित्याग करके वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के पास जिनशासन में प्रव्रजित हो गया / विवेचन महया : दो अर्थ—(१) महान् संवेग और निर्वेद, अथवा (2) महान् अादर के साथ / संवेग और निर्वेद-संवेग का अर्थ है-मोक्ष की अभिलाषा और निर्वेद का अर्थ है--संसार से उद्विग्नता–विरक्ति। रज्जं राज्य को। क्षत्रियमुनि द्वारा संजयराजर्षि से प्रश्न 20. चिच्चा रट्ठ पव्यइए खत्तिए परिभासइ / जहा ते दोसई रूवं पसन्नं ते तहा मणो / 1. उत्तराध्ययनसूत्र बृहद्वत्ति, पत्र 440, 441 2. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति, पत्र 441 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org