________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय] [279 [12] जब कि तुझे सब कुछ छोड़ कर अवश्य ही विवश होकर (परलोक में) चले जाना है, तब इस अनित्य जीवलोक में तू राज्य में क्यों आसक्त हो रहा है ? 13. जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपाय-चंचलं / जत्थ तं मुज्झसी राय ! पेच्चत्थं नावबुज्झसे // [13] राजन ! तू जिस पर मोहित हो रहा है, वह जीवन और रूप विद्युत् की चमक के समान चंचल है। तू अपने परलोक के हित (अर्थ) को नहीं जान रहा है / 14. दाराणि य सुया चेव मित्ता य तह बन्धवा। जीवन्तमणुजीवन्ति मय नाणुव्वयन्ति य / / [14] (इस स्वार्थी संसार में) स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र तथा बन्धुजन, (ये सब) जीवित व्यक्ति के साथी हैं, मृत व्यक्ति के साथ कोई नहीं जाता। 15. नोहरन्ति मय पुत्ता पियरं परमक्खिया। ___ पियरो वि तहा पुत्ते बन्धू राय! तवं चरे // [15] अत्यन्त दुःखित होकर पुत्र अपने मृत पिता को (घर से बाहर निकाल देते हैं / इसी प्रकार (मृत) पुत्रों को पिता और बन्धुओं को (बन्धुजन) भी बाहर निकाल देते हैं। अत: हे राजन् ! तू तपश्चर्या कर / 16. तओ तेणऽज्जिए दवे दारे य परिरक्खिए। ___कीलन्तऽन्ने नरा रायं! हट्ठ-तुट्ठ-मलं किया / __ [16] हे भूपाल ! मृत्यु के बाद उस (मृत व्यक्ति) के द्वारा उपाजित द्रव्य को तथा सुरक्षित नारियों को दूसरे व्यक्ति (प्राप्त करके) आनन्द मनाते हैं; वे हृष्ट-पुष्ट-सन्तुष्ट और विभूषित (वस्त्राभूषणों से सुसज्जित) होकर रहते हैं। 17. तेणावि जं कयं कम्मं सुहं वा जइ वा दुहं / कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छई उ परं भवं // [17] उस मृत व्यक्ति ने (पहले) जो भी सुखहेतुक (शुभ) कर्म या दुःखहेतुक (अशुभ) कर्म किया है, (तदनुसार) वह उस कर्म से युक्त होकर परभव (परलोक) में (अकेला ही) जाता है। विवेचन-अभओ पत्थिवा ! तुज्झ-मुनि ने भयाकुल राजा को आश्वासन देते हुए कहाहे राजन् ! मेरी ओर से तुम्हें कोई भय नहीं है। विज्जुसंपाय चंचलं : अर्थ-बिजली के सम्पात, अर्थात् चमक के समान चपल / 'अभयदाया भवाहि य' : मुनि ने राजा को आश्वस्त करते हुए कहा--राजन् ! जैसे तुम्हें मृत्यु का भय लगा, वैसे दूसरे प्राणियों को भी मृत्यु का भय है / जैसे मैंने तुझे अभयदान दिया, वैसे तु भी दूसरे प्राणियों का अभयदाता बन / अणिच्चे जीवलोगम्मि० --यह समग्र जीवलोक अनित्य है, इस दृष्टि से तुम भी अनित्य हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org