________________ 278] [उत्तराध्ययनसून विवेचन-तहि : प्राशय -उस मण्डप में, जहाँ वे मुनि ध्यान कर रहे थे। मणाऽऽहओ-उनके निकट में ही हिरणों को मार कर व्यर्थ ही मैंने मुनि के हृदय को चोट पहुँचाई है / ' मुनि के मौन से राजा की भयाकुलता 9. अह मोणेण सो भगवं अणगारे झाणमस्सिए / रायाणं न पडिमन्तेइ तओ राया भयदुओ।। [6] उस समय वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान (धर्मध्यान) में मग्न थे। (अतः) उन्होंने राजा को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इस कारण राजा भय से और अधिक त्रस्त हो गया / 10. संजओ अहमस्सीति भगवं ! वाहराहि मे। कुद्ध तेएण अणगारे डहेज्ज नरकोडिओ। [10] (राजा ने कहा)-भगवन् ! मैं 'संजय' हूँ। आप मुझ से वार्तालाप करें, बोलें ; (क्योंकि) क्रुद्ध अनगार अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को भस्म कर सकता है। विवेचन-न पडिमतेइ-प्रत्युत्तर नहीं दिया (अतः राजा ने सोचा-'मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ, या नहीं' ऐसा मुनि ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इससे मालूम होता है कि ये अवश्य ही क्रुद्ध हो गये हैं, इसी कारण ये मुझ से कुछ भी नहीं बोलते)। भयददुनो-मुनि के मौन रहने के कारण राजा अत्यन्त भयत्रस्त हो गया कि न जाने ये ऋषि कुपित होकर क्या करेंगे? संजओ अहमस्सीति-भयभीत राजा ने नम्रतापूर्वक अपना परिचय दिया---'मैं 'संजय' नामक राजा हूँ।' यह इस आशय से कि कहीं मुझे ये नीच समझ कर कोप करके भस्म न कर दें। कुद्ध तेएण-राजा बोला-'मैं इसलिए भयत्रस्त हूँ कि आप मुझ से बात नहीं कर रहे हैं / मैंने सुना है कि तपोधन अनगार कुपित हो जाएँ तो अपने तेज (तपोमाहात्म्य जनित तेजोलेश्यादि) से सैकड़ों, हजारों ही नहीं, करोड़ों मनुष्यों को भस्म कर सकते हैं।' मुनि के द्वारा अभयदान, अनासक्ति एवं अनित्यता आदि का उपदेश 11. अभओ पत्थिवा! तुभं अभयदाया भवाहि य / अणिच्चे जीवलोगम्मि कि हिंसाए पसज्जसि ? [11] मुनि ने कहा-हे पृथ्वीपाल ! तुझे अभय है। किन्तु तू भी अभयदाता बन / इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में रचा-पचा है ? 12. जया सव्वं परिच्चज्ज गन्तव्यमवसस्स ते / प्रणिच्चे जीवलोगम्मिकि रज्जम्मि पसज्जसि? 1. उत्तरा. बृहद्वत्ति, पत्र 439 2. उत्तरा बृद्वृत्ति, पत्र 439 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org