________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय] [277 [4] इधर उस केसर उद्यान में एक तपोधन अनगार स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न थे। वे धर्मध्यान में एकतान हो रहे थे। 5. अप्फोवमण्डवम्मि झायई झवियासवे / तस्सागए मिए पासं वहेई से नराहिवे // [5] पाश्रव का क्षय करने वाले मुनि अप्फोव-(लता) मण्डप में ध्यान कर रहे थे। उनके समीप पाए हुए मृगों को उस नरेश ने (बाणों से) बींध दिया। विवेचन अणगारे तवोधणे : आशय यहाँ तपोधन अनगार का नाम नियुक्तिकार ने 'गद्दभालि' (गर्दभालि) बताया है / ' सज्झायज्झाणसंजुत्ते--स्वाध्याय से अभिप्राय है---अनुप्रेक्षणादि और ध्यान से अभिप्राय हैधर्मध्यान आदि शुभ ध्यान में संलीन / झवियासवे-जिन्होंने हिंसा आदि आश्रवों अर्थात् कर्म-बन्ध के हेतुओं को निर्मूल कर दिया था। अप्फोवमंडवे --यह देशीय शब्द है, वृद्ध व्याख्याकारों ने इसका अर्थ किया है-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि से आच्छादित मण्डप / वहेइ : दो अर्थ-(१) बींध दिया, (2) वध कर दिया / मुनि को देखते ही राजा द्वारा पश्चात्ताप और क्षमायाचना 6. अह आसगओ राया खिप्पमागम्म सो तहि / हए मिए उ पासित्ता अणगारं तत्थ पासई॥ [6] तदनन्तर वह अश्वारूढ राजा शीव्र ही वहाँ प्राया, (जहाँ मुनि ध्यानस्थ थे।) मृत हिरणों को देख कर उसने वहाँ एक ओर अनगार को भी देखा / 7. अह राया तत्थ संभन्तो अणगारो मणाऽऽहओ। ___मए उ मन्दपुण्णणं रसगिद्धण घन्तुणा / / [7] वहाँ मुनिराज को देखने पर राजा सम्भ्रान्त (भयत्रस्त) हो उठा। उसने सोचा--मुझ मन्दपुण्य (भाग्यहीन), रसासक्त एवं हिंसापरायण (घातक) ने व्यर्थ ही अणगार को आहत किया, पीड़ा पहुँचाई है। 8. आसं विसज्जइत्ताणं अणगारस्स सो निवो। विणएण वन्दए पाए भगवं! एत्य मे खमे / / [8] उस नृप ने अश्व को (वहीं) छोड़ कर मुनि के चरणों में सविनय वन्दन किया और कहा-'भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें।' 1. उत्तरा. नियुक्ति, गाथा 397 2. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र 438 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org