________________ सत्रहवाँ अध्ययन : पापश्रमणीय] [273 विवेचन -आयरियपरिच्चाई-आचार्यपरित्यागी—प्राचार्य का परित्याग कर देने वाला। तपक्रिया में असमर्थता अनुभव करने वाले साधु को प्राचार्य तपस्या में उद्यम करने की प्रेरणा देते हैं तथा लाया हुआ आहार भी ग्लान, बालक आदि साधुओं को देते हैं, इस कारण या ऐसे ही किसी अन्य कारणवश जो प्राचार्य को छोड़ देता है और सुख-सुविधा वाले अन्य पासण्ड मत--पंथ का आश्रय ले लेता है।' __ गाणंगणिए-गाणंगणिक जो मुनि स्वेच्छा से गुरु या प्राचार्य की आज्ञा के बिना, अध्ययन आदि किसी प्रयोजन के बिना ही छह मास को अल्प अवधि में ही एक गण से दूसरे गण में चला जाता है, वह गाणंगणिक कहलाता है। भ. महावीर की संघव्यवस्था में यह नियम था कि जो साधु जिस गण में दीक्षित हो, उसी में जीवन भर रहे। हाँ, अध्ययनादि किसी विशेष कारणवश गुरु-ग्राज्ञा से वह अन्य साधार्मिक गणों में जा सकता है। परन्तु गणान्तर में जाने के बाद कम-से-कम 6 महीने तक तो उसे उसी गण में रहना चाहिए। परगेहंसि वावडे : दो अर्थ---(१) चूणि के अनुसार परगृह में व्याप्त होता है का अर्थ हैनिमित्तादि बता कर निर्वाह करना / (2) बृहद्वत्ति के अनुसार--स्वगृह---स्वप्रव्रज्या को छोड़कर जो परगृह में व्याप्त होता है---अर्थात् जो रसलोलुप आहारार्थी होकर गृहस्थों को प्राप्तभाव दिखाकर उनका काम स्वयं करने लग जाता है। संनाइपिंडं जेमेइ---स्वज्ञातिजन अथ त्—िस्वजन यथेष्ट स्निग्ध, मधुर एवं स्वादिष्ट आहार देते हैं, इसलिए जो स्वज्ञातिपिण्ड खाता है। सामुदाणियं-ऊँच-नीच आदि सभी कुलों से भिक्षा लेना सामुदानिक है / बृहद्वत्ति के अनुसार-(१) अनेक घरों से लाई हुई भिक्षा तथा (2) अज्ञात ऊंछ--अपरिचित घरों से लाई हुई भिक्षा। दुब्भूए : तात्पर्य दुराचार के कारणभूत-निन्दित दुर्भूत कहलाता है। सुविहित श्रमण द्वारा उभयलोकाराधना 21. जे वज्जए एए सया उ दोसे से सुब्बए होइ भुणीण मज्झे। __ अयंसि लोए अमयं व पूइए आराहए लोगमिणं तहावरं / —ति बेमि 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 435 2. (क) वही, पत्र 435-436 (ख) "छम्मासऽन्भंतरतो गणा गणं संकम करेमाणो।" -दशाश्रुत. (ग) स्थानांग. 71541 / 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 436 (ख) चूणि, पृ. 246-247 4. बृहद्वति, पत्र 436 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org