SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 272] [उत्तराध्ययनसूत्र नवनीत. ये पांच विगड (विकृतियाँ) कहलाती हैं। इनका बार-बार या अतिमात्रा में बिना किसी पुष्टावलम्बन (कारण) के सेवन विकार बढ़ाता है / इसलिए इन्हें विकृति कहा जाता है।' चोइओ पडिचोएइ : व्याख्या-प्रेरणा करने वाले को ही उपदेश झाड़ने लगता है। जैसे किसी गीतार्थ साधु ने दिन भर आहार करते रहने वाले साधु से कहा—'भाई ! क्या तुम दिन भर आहार ही करते रहोगे ? मनुष्यजन्म, धर्मश्रवण आदि उत्तम संयोग प्राप्त करके तपस्या में उद्यम करना उचित है।' इस प्रकार प्रेरित करने पर वह उलटा सामने बोलने लगता है--ग्राप दूसरों को उपदेश देने में ही कुशल हैं, स्वयं आचरण करने में नहीं। अन्यथा, जानते हुए भी आप लम्बी तपस्या क्यों नहीं करते हैं ? वीर्याचार में प्रमादी : पापश्रमण 17. आयरियपरिच्चाई, परपासण्डसेवए / गाणंगणिए दुभूए, पावसमणे त्ति वुच्चई // [17] जो अपने आचार्य का परित्याग करके अन्य पाषण्ड--(मतपरम्परा) को स्वीकार करता है, जो एक गण को छोड़कर दूसरे गण में चला जाता है, वह दुर्भूत (निन्दित) पापश्रमण कहलाता है। 18. सयं गेहं परिचज्ज, परगेहंसि वावडे / निमित्तेण य ववहरई, पावसमणे त्ति वुच्चई // [18] जो अपने घर (साधु-संघ) को छोड़कर पर-घर (गृहस्थी के धन्धों) में व्याप्त होता (लग जाता) है, जो शुभाशुभ निमित्त बतला कर व्यवहार चलाता-द्रव्योपार्जन करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। 19. सन्नाइपिण्डं जेमेई, नेच्छई सामुदाणियं / गिहिनिसेज्जं च वाहेइ, पावसमणे ति वुच्चई // [16] जो अपने ज्ञातिजनों-पूर्वपरिचित स्वजनों से ही प्राहार लेता है, सभी घरों से सामुदानिक भिक्षा लेना नहीं चाहता तथा गृहस्थ की निषद्या (बैठने की गद्दी पर बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है। 20. एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे, रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे। अयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव परस्थ लोए // [20] जो इस प्रकार का आचरण करता है, वह पांच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत है, वह केवल मुनिवेष का ही धारक है, वह श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है, वह इस लोक में विष की तरह निन्द्य है / न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का। 1. बृहद्वत्ति, पत्र 435 2. वही, पत्र 435 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy