________________ सत्रहवां अध्ययन : पापश्रमणीय] [271 गुरुं परिभावए—(१) जो गुरु का तिरस्कार करता है, गुरु के साथ विवाद करता है, असभ्य वचनों का प्रयोग करके गुरु को अपमानित करता है / जैसे—किसी गलत आचरण पर गुरु के द्वारा प्रेरित करने पर कहे. पर कहे-'पाप अपना देखिये! आपने ही तो पहले हमें ऐसा सिखाया था, अब आप ही इसमें दोष निकालते हैं ! इसमें गलती आपकी है, हमारी नहीं।' असंविभागी–जो गुरु, रोगी, छोटे साधु आदि को उचित आहारादि दे देता है, वह संविभागी है, किन्तु जो अपना ही प्रात्मपोषण करता है, वह असंविभागी है।' प्रत्तपन्नहा : तीन रूप : तीन अर्थ—(१) आत्तप्रज्ञाहा सिद्धान्तादि के श्रवण से प्राप्त सद्बुद्धि (प्रज्ञा) को कुतर्कादि से हनन करने वाला, (2) प्राप्तप्रज्ञाहा-इहलोक-परलोक के लिए प्राप्त (हित) रूपी प्रज्ञा से कुयुक्तियों द्वारा दूसरों की बुद्धि को बिगाड़ने वाला / (3) आत्मप्रश्नहाअपनी आत्मा में उठती हुई आवाज को दबा देना। जैसे किसी ने पूछा कि आत्मा अन्य भवों में जाती है या नहीं ? तव उसी प्रश्न को अतिवाचालता से उड़ा देना कि आत्मा ही नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अनुपलब्ध है, इसलिए तुम्हारा प्रश्न ही अयुक्त है। बुग्गहे : (1) विग्रह-डंडे आदि से मारपीट करके लड़ाई-झगड़ा करना, (2) व्युद्ग्रहकदाग्रह-मिथ्या प्राग्रह / अणाउत्ते-सोते समय मुर्गी की तरह पैर पसार कर सिकोड़ लेने का प्रागम में विधान है। इसीलिए यहाँ कहा गया कि जो संस्तारक पर सोते समय ऐसी सावधानी नहीं रखता, वह अनायुक्त है। तप-प्राचार में प्रमादी : पापश्रमण 15. दुद्ध-दहीविगईमो, आहारेइ अभिक्खणं / __ अरए य तवोकम्मे, पावसमणे त्ति वुच्चई // [15] जो दुध, दही आदि विकृतियों (विगई) का बार-बार सेवन करता है, जिसकी तपक्रिया में रुचि नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। 16. अत्यन्तम्मि य सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं / ___ चोइओ पडिचोएइ, पावसमणे त्ति वुच्चई // [16] जो सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बार-बार अाहार करता रहता है, जो समझाने (प्रेरणा देने) वाले शिक्षक गुरु को उलटे उपदेश देने लगता है, वह पापश्रमण कहलाता है। विवेचन--विग्गईओ : व्याख्या-दूध, दही, घी, तेल, गुड़ (चीनी आदि मीठी वस्तुएँ) और 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 434 2. वही, पत्र 435 3. वही, पत्र 435 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org