________________ 270] [उत्तराध्ययनसूत्र लाता है। 9. पडिलेहेइ पमत्ते, उवउज्झइ पायकम्बलं / पडिलेहणाअणाउत्ते, पावसमणे ति बुच्चई // [6] जो अनुपयुक्त (असावधान) हो कर प्रतिलेखन करता है, जो पात्र और कम्बल जहाँतहाँ रख देता है, जो प्रतिलेखन में अनायुक्त (उपयोगरहित) होता है, वह पापश्रमण कहलाता है / 10. पडिलेहेइ पमत्ते, से किचि हु निसामिया। गुरु परिभावए निच्चं, पावसमणे त्ति वुच्चई // [10] जो (इधर-उधर की) तुच्छ बातों को सुनता हुआ प्रमत्त हो कर प्रतिलेखन करता है, जो गुरु की सदा अवहेलना करता है, वह पापश्रमण कहलाता है / 11. बहुमाई पमुहरे, थद्ध लुद्ध अणिग्गहे / ___ असंविभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई / [11] जो बहुत मायावी (कपटशील) है, अत्यन्त वाचाल है, लुब्ध है, जिसका इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण नहीं है, जो प्राप्त वस्तुओं का संविभाग नहीं करता, जिसे अपने गुरु आदि के प्रति प्रेम नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। 12. विवादं च उदीरेइ, अहम्मे अत्तपन्नहा / दुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई / / [12] जो शान्त हुए विवाद को पुनः भड़काता है, जो अधर्म में अपनी बुद्धि को नष्ट करता है, जो कदाग्रह (विग्रह) तथा कलह करने में रत रहता है, वह पापश्रमण कहलाता है / 13. अथिरासणे कुक्कुईए, जत्थ तत्थ निसीयई / आसणम्मि अणाउत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई / / [13] जो स्थिरता से नहीं बैठता, जो हाथ-पैर आदि की चपल एवं विकृत चेष्टाएँ करता है, जो जहाँ-तहाँ बैठ जाता है, जिसे आसान पर बैठने का विवेक नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। 14. ससरखपाए सुवई, सेज्जं न पडिलेहइ / संथारए अणाउत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई // [14] जो सचित्त रज से लिप्त पैरों से सो जाता है, जो शय्या का प्रतिलेखन नहीं करता तथा संस्तारक (बिछौना) करने में भी अनुपयुक्त (असावधान) रहता है, वह पापश्रमण कहलाता है / विवेचन–अप्पमज्जियं : प्रमार्जन किये बिना अर्थात् रजोहरण से पट्ट आदि की सफाई (शुद्धि) किये बिना / यहाँ उपलक्षण से प्रतिलेखन किये (देखे) बिना, अर्थ भी समझ लेना चाहिए / जहाँ प्रमार्जन है, वहाँ प्रतिलेखन अवश्य होता है / किंचि ह निसामिया' : जो कुछ भी बातें सुनता है, उधर ध्यान देकर प्रतिलेखन में उपयोग न रखना। 1. बृहद्वत्ति पत्र 434 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org