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________________ सत्रहवां अध्ययन : पापश्रमणीय] [269 पश्चात् जैसे-जैसे विकथा आदि करने से सुख मिलता जाता है, इस कारण सिंहरूप में दीक्षित हो कर शृगालवृत्ति से जीता है। दढा-दृढ़-मजबूत अर्थात् हवा, धूप, वर्षा आदि उपद्रवों से सुरक्षित / पाउरणं प्रावरण-वर्षा-कल्प अादि या वस्त्रादि / किं नाम काहामि सुएणं ?..वह वर्तमान सुखैषी हो कर कहता है-मैं शास्त्र अध्ययन करके क्या करूगा? आप जो कुछ अध्ययन करते हैं, उससे भी आप किसी भी अतीन्द्रिय वस्तु को नहीं जान-देख सकते, किन्तु वर्तमान मात्र को देखते हैं, इतना ज्ञान तो मुझे में भी है। फिर मैं शास्त्राध्ययन करके अपने कण्ठ और तालु को क्यों सुखाऊँ ? सुहं सुवइ-समस्त धर्मक्रियाओं से निरपेक्ष-उदासीन हो कर सो जाता है / दर्शनाचार में प्रमादी: पापश्रमण 5. आयरिय-उवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पइ / __अप्पडिपूयए थद्ध, पावसमणे त्ति बुच्चई / / [5] जो प्राचार्य और उपाध्याय के सेवा प्रादि कार्यों की चिन्ता नहीं करता, अपितु उनसे पराङ मुख हो जाता है, जो अहंकारी होता है, वह पापश्रमण कहलाता है। विवेचन—पडितप्पई : भावार्थ वह दर्शनाचारान्तर्गत वात्सल्य से रहित होकर प्राचार्यादि की सेवा में ध्यान नहीं देता। अप्पडिपूलए : वह प्राचार्यादि के प्रति पूजा-सत्कार के भाव नहीं रखता। उपलक्षण से अरिहन्त आदि के प्रति भी यथोचित विनय-भक्ति से विमुख हो जाता है / / चारित्राचार में प्रमादो: पापश्रमण 6. सम्मद्दमाणे पाणाणि, बोयाणि हरियाणि य। असंजए संजयमन्नमाणे, पावसमणे त्ति वुच्चई / / [6] जो प्राणी (द्वीन्द्रिय प्रादि जीव), बीज और हरी वनस्पति का सम्मर्दन करता (कुचलता) रहता है तथा असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है / 7. संथारं फलगं पीढं, निसेज्जं पायकम्बलं / अप्पमज्जियमारुहइ, पावसमणे ति वुच्चई // [7] जो संस्तारक (बिछौना), फलक (पट्टा), पीठ (चौकी या प्रासन), निषद्या (स्वाध्यायभूमि आदि) तथा पादकम्बल (पैर पोंछने के ऊनी वस्त्र) का प्रमार्जन किये बिना ही उन पर बैठ जाता है, वह पापश्रमण कहलाता है। 8. दवदवस चरई, पमत्ते य अभिक्खणं / उल्लंघणे य चण्डे य, पावसमणे ति वुच्चई // [8] जो जल्दी-जल्दी चलता है, जो बार-बार प्रमादाचरण करता रहता है, जो मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, अति क्रोधी होता है, वह पापश्रमण कहलाता है / 1. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 432-433 2. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 433 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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