________________ 274] [उत्तराध्ययनसूत्र [21] जो साधु इन दोषों का सदा त्याग करता है, वह मुनियों में सुनत होता है, वह इस लोक में अमृत के समान पूजा जाता है / अतः वह इस लोक और परलोक, दोनों लोकों को आराधना करता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-सुब्वए--अर्थ-निरतिचारता के कारण प्रशस्यव्रत / ' // पापश्रमणीय : सत्रहवाँ अध्ययन समाप्त // 1. बृहद्वत्ति, पत्र 436 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org