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________________ मानव जीवन की महत्ता का कारण यह है कि वह अपने जीवन को सद्गुणों से चमका सकता है। मानव-तन मिलना कठिन है किन्तु 'मानवता' प्राप्त करना और भी कठिन है। नर-तन तो चोर, डाक एवं बदमाशों को भी मिलता है पर मानवता के अभाव में वह तन मानव-तत नहीं, दानव-तन है। मानवता के साथ ही निष्ठा की भी उतनी ही आवश्यकता है, क्योंकि विना निष्ठा के ज्ञान प्राप्त नहीं होता। गीताकार ने भी "श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" कहकर श्रद्धा की महत्ता प्रतिपादित की है। जब तक साधक की श्रद्धा समीचीन एवं सुस्थिर नहीं होती, तब तक साधना के पथ पर उसके कदम दृढ़ता से आगे नहीं बढ़ सकते, इसलिए श्रद्धा पर बल दिया गया है। साथ ही धर्मश्रवण के लिए भी प्रेरणा दी गई है। धर्मश्रवण से जीवादितत्त्वों का सम्यक परिज्ञान होता है और सम्यक् परिज्ञान होने से साधक पुरुषार्थ के द्वारा सिद्धि को वरण करता है / जागरूकता का सन्देश चतुर्थ अध्ययन का नाम समवायांग में८१ 'असंखयं है। उत्तराध्ययननियुक्ति में 'प्रमादाप्रमाद' नाम दिया है।८२ नियुक्तिकार ने अध्ययन में वर्णित विषय के आधार पर नाम दिया है तो समवायांग में जो नाम है वह प्रथम गाथा के प्रथम पद पर आधत है। अनुयोगद्वार से भी इस बात का समर्थन होता है। व्यक्ति सोचता है-अभी तो मेरी युवावस्था है, धर्म वृद्धावस्था में करूंगा, पर उसे पता नहीं कि बद्धावस्था आयेगी अथवा नहीं? इसलिए भगवान ने कहा-धर्म करने में प्रमाद न करो ! जो व्यक्ति यह सोचते हैं कि अर्थ पुरुषार्थ है, अतः अर्थ मेरा कल्याण करेगा, पर उन्हें यह पता नहीं कि अर्थ अनर्थ का कारण है। तुम जिस प्रकार के कर्मों का उपार्जन करोगे उसी प्रकार का फल प्राप्त होगा। "कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि"---कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। इस प्रकार अनेक जीवनोत्थान के तथ्यों का प्रतिपादन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है और साधक को यह प्रेरणा दी गई है कि वह प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहकर साधना के पथ पर आगे बढ़े। __चतुर्थ अध्ययन की प्रथम और तृतीय गाथा में जो भाव अभिव्यक्त हुए हैं, वैसे ही भाब बौद्धग्रन्थअंगुत्तरनिकाय तथा थेरगाथा में भी आये हैं / हम जिज्ञासुनों के लिए यहाँ पर उन गाथाओं को तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने हेतु दे रहे हैं। देखिए "असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नस्थि ताणं / एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कण्णू विहिंसा प्रजया गहिन्ति / / " -उत्तराध्ययनसूत्र 41 तुलना कीजिए "उपनीयति जीवितं अप्पमाय, जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा / एतं भयं मरणे पेक्खमाणो, पूनानि कयिराथ सूखावहानि // " -अंगुत्तरनि., पृष्ठ 159 "तेणे जहा सन्धिमुहे महीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी / एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि // " -उत्तराध्ययन 4 / 3 81. छत्तीसं उत्तरज्झयणा 50 त०—विणयसूयं ...."असंखयं .......! -समवायांग, समवाय 36 82. पंचविहो अपमानो इहमज्झयणं मि अप्पमायो य / वण्णिएज्ज उ जम्हां तेण पमायप्पमायति / / - उत्तराध्ययननिय क्ति, गाथा 181 83. अनुयोगद्वार, सूत्र 130 : पाठ के लिए देखिये पृ. 39 पा. टि. 1 [ 37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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