________________ तुलना कीजिए "चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो, सकम्भूना हमति पापधम्मो। एवं पजा पेच्च परम्हि लोके, सकम्मूना हमति पापधम्मो॥" -थेरगाथा 789 मृत्यु : एक चिन्तन पांचवें अध्ययन में अकाम-मरण के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। भारत के तत्त्वदर्शी ऋषि महर्षि और सन्तगण जीवन और मरण के सम्बन्ध में समय-समय पर चिन्तन करते रहे हैं। जीवन सभी को प्रिय है और मृत्यु अप्रिय है। जीवित रहने के लिए सभी प्रयास करते हैं और चाहते हैं कि हम दीर्घकाल तक जीवित रहें। उत्कट जिजीविषा प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। पर सत्य यह है कि जीवन के साथ मृत्यु का चोली-दामन का सम्बन्ध है। न चाहने पर भी मृत्यु निश्चित है, यहाँ तक कि मृत्यु की आशंका से मानव और पशु ही नहीं अपितु स्वर्ग के अनुपम सुखों को भोगने वाले देव और इन्द्र भी कांपते हैं / संसार में जितने भी भय हैं, उन सब में मृत्यु का भय सबसे बढ़कर है। पर चिन्तकों ने कहा-तुम मृत्यु से भयभीत मत बनो! जीवन और मरण तो खेल है। तुम खिलाड़ी बनकर कलात्मक ढंग से खेलो, चालक को मोटर चलाने की कला पानी चाहिए तो मोटर को रोकने की कला भी आनी चाहिए। जो चालक केवल चलाना ही जानता हो, रोकने की कला से अनभिज्ञ हो, वह कुशल चालक नहीं होता / जीवन और मरण दोनों ही कलाओं का पारखी ही सच्चा पारखी है। जैसे हँसते हुए जीना आवश्यक है, वैसे ही हँसते हुए मृत्यु को वरण करना भी आवश्यक है। जो हँसते हुए मरण नहीं करता है, वह अकाममरण को प्राप्त होता है / अकाममरण विवेकरहित और सकाममरण विवेकयुक्त मरण है / अकाममरण में विषय-वासना की प्रबलता होती है, कषाय की प्रधानता होती है और सकाममरण में विषय-वासना और कषाय का प्रभाव होता है। सकाममरण में साधक शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् मानता है / शुद्ध दृष्टि से आत्मा विशुद्ध है, अनन्त प्रानन्द-मय है। शरीर का कारण कर्म है और कर्म से ही मृत्यु और पुनर्जन्म है। इसलिए उस साधक के मन में न बासना होती है और न दुर्भावना ही होती है / वह विना किसी कामना के स्वेच्छा से प्रसन्नता बक मृत्यु को इसलिए वरण करता है कि उसका शरीर अब साधना करने में सक्षम नहीं है। अतः समाधिपूर्वक सकाममरण की महिमा पागम व आगमेतर साहित्य में गाई गई है। सकाममरण को पण्डितमरण भी कहते हैं / पण्डितमरण के अनेक भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ आगम-साहित्य में विस्तार से निरूपित हैं। बालमरण के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। विस्तारभय से उन सभी की चर्चा हम यहाँ नहीं कर रहे हैं। प्रात्म-बलिदान और समाधिमरण में बहत अन्तर है। आत्म-बलिदान में भावना की प्रबलता होती है। विना भावातिरेक के ग्रात्म-बलिदान सम्भव नहीं है। समाधिमरण में भावातिरेक नहीं होता। उसमें विवेक और वैराग्य की प्रधानता होती है। आत्मघात और संलेखना--संथारे में भी आकाश-पाताल जितना अन्तर है। अात्मघात करने वाले के चेहरे पर तनाव होता है, उसमें एक प्रकार का पागलपन आ जाता है / प्राकुलता-व्याकुलता होती है। जबकि समाधिमरण करने वाले की मृत्यु पाकस्मिक नहीं होती। अात्मघाती में कायरता होतो है, कर्तव्य से पलायन को भावना होती है, पर पण्डितमरण में वह वृत्ति नहीं होती / वहाँ प्रबल समभाव होता है। पण्डितमरण के सम्बन्ध में जितना जैन मनीषियों ने चिन्तन किया है, उतना अन्य मनीषियों ने नहीं। [38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org