________________ सोलहवाँ अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान] [263 1. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवडणं / बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए / [7] ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत भोजन-पान का सदैव त्याग करे। 8. धम्मलद्धमियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं / नाइमत्तं तु भुजेज्जा बम्भचेररओ सया // [8] ब्रह्मचर्य में लीन रहने वाला, चित्त-समाधि से सम्पन्न साधु संयमयात्रा (या जीवननिर्वाह) के लिए उचित (शास्त्र-विहित) समय में धर्म (मुनिधर्म की मर्यादानुसार) उपलब्ध परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक भोजन न करे / 9. विभूसं परिवज्जेज्जा सरीरपरिमण्डणं / बम्भचेररओ भिक्खू सिंगारस्थं न धारए / [6] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु विभूषा का त्याग करे, शृगार के लिए शरीर का मण्डन (प्रसाधन) न करे / 10. सद्दे रूवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य / पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए / [10] वह शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-इन पांच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे। विवेचन-विविक्त, अनाकीर्ण और रहित : तीनों का अन्तर--विविक्त का अर्थ है-स्त्री आदि के निवास से रहित एकान्त, अनाकीर्ण का अर्थ है-उन-उन प्रयोजनों से आने वाली स्त्रियों प्रादि से अनाकल-भरा न रहता हो ऐसा स्थान तथा रहित का अर्थ है--अकाल में व्याख्यान, वन्दन अादि के लिए पाने वाली स्त्रियों से रहित-वजित / ' कामरागविवडणी : अर्थ-कामराग-विषयासक्ति की वृद्धि करने वाली। चक्खुगिज्झ० : तात्पर्य-चक्षरिन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंगादि को न देखे, न देखने का प्रयत्न करे / यद्यपि नेत्र होने पर रूप का ग्रहण अवश्यम्भावी है, तथापि यहाँ प्रयत्नपूर्वक-स्वेच्छा से देखने का परित्याग करना चाहिए, यह अर्थ अभीष्ट है। कहा भी है-चक्षु-पथ में आए हुए रूप का न देखना तो अशक्य है, किन्तु बुद्धिमान् साधक राग-द्वेषवश देखने का परित्याग करे। मयविवड्डणं-मद का अर्थ यहाँ-कामोद्रेक-कामोत्तेजन है, उसको बढ़ाने वाला (मदविवर्द्धन)।' 1. बृहद्वत्ति, पत्र 428 2. वही, पत्र 428 : असक्का रूवमट' चक्खुगोयरमागयं / रागद्दोसे उ जे तत्य, तं बुहो परिवज्जए॥ 3. वही, पत्र 428 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.