________________ 264] [उत्तराध्ययनसूत्र धम्मलद्ध : तीन रूप : तीन अर्थ (1) धर्म्यलब्ध-धर्म्य--धर्मयुक्त एषणीय, निर्दोष भिक्षा द्वारा गृहस्थों से उपलब्ध, न कि स्वयं निर्मित, (2) धर्म-मुनिधर्म के कारण या धर्मलाभ के कारण लब्ध, न कि चमत्कार प्रदर्शन से प्राप्त और (3) 'धर्मलब्ध'-उत्तम क्षमादि दस धर्मों को निरतिचार रूप से प्राप्त करने के लिए प्राप्त / ' ___ 'मियं-मितं'—सामान्य अर्थ है-परिमित, परन्तु इसका विशेष अर्थ है-शास्त्रोक्त परिमाणयुक्त आहार / अागम में कहा है-पेट में छह भागों की कल्पना करे, उनमें से प्राधान्यानी तीन भाग साग-तरकारी सहित भोजन से भरे, दो भाग पानी से भरे और एक भाग वायुसंचार के लिए खाली रखे। _ 'जत्तत्थं'---यात्रार्थ-संयमनिर्वाहार्थ, न कि शरीरबल बढ़ाने एवं रूप आदि से सम्पन्न बनने के लिए। पणिहाणवं-चित्त की स्वस्थता से युक्त होकर भोजन करे, न कि रागद्वेष या क्रोधादि वश होकर। सरीरमंडणं-शरीरपरिमण्डन, अर्थात्-केशप्रसाधन आदि / कामगुणे : व्याख्या इच्छाकाम और मदनकाम रूप द्विविध काम के गुण, अर्थात्---उपकारक घा साधन अथवा साधन रूप उपकरण / प्रात्मान्वेषक ब्रह्मचर्यनिष्ठ के लिए दस तालपुटविष-समान 11. आलो थीजणाइण्णो थोकहा य मणोरमा / __ संथवो चेव नारीणं तासि इन्दियदरिसणं / / 12. कुइयं रुइयं गीयं हसियं भुत्तासियाणि य / पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं / 13. गत्तभूसणमिठं च कामभोगा य दुज्जया। नारस्सऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा। [11-12-13] (1) स्त्रियों से आकीर्ण प्रालय (निवासस्थान), (2) मनोरम स्त्रीकथा, (3) नारियों का परिचय (संसर्ग), (4) उनकी इन्द्रियों का (रागभाव से) अवलोकन, / / 11 / / 1. बृहद्वत्ति, पत्र 428-429 2. (क) उत्तरा. प्रियशिनीटीका, भा. 3, पृ. 73 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 429 3. वही, पत्र 429 यात्रार्थ-संयमनिर्वाहणार्थ, न तु रूपाद्यर्थम् / "प्रणिधानवान-चित्तस्वास्थ्योपेतो, न तु रागद्वेषवशगो भजीत / / 4. वही, पत्र 429 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org