________________ 262] [उत्तराध्ययनसून का या उनके चित्रों का अवलोकन, रस-मधुरादि रसों द्वारा अभिवृद्धि पाने वाला, गन्ध-कामवद्धक सुगन्धित पदार्थ एवं स्पर्श-आसक्तिजनक कोमल कमल आदि का स्पर्श, इनमें लुभा जाने (आसक्त हो जाने) वाला। पूर्वोक्त दस समाधिस्थानों का पद्यरूप में विवरण 1. जं विवित्तमणाइण्णं रहियं थोजणेण य। बम्भचेरस्स रक्खट्टा आलयं तु निसेवए / [1] निर्ग्रन्थ साधु ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ऐसे स्थान (प्रालय) में रहे , जो विविक्त (एकान्त) हो, अनाकीर्ण (स्त्री आदि से अव्याप्त) हो और स्त्रीजन से रहित हो / 2. मणपल्हायजर्णाण कामरागविवणि / बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए / [2] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाली और कामराग बढ़ाने वाली स्त्रीकथा का त्याग करे। 3. समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं / बंभचेररो भिक्खू निच्चसो परिवज्जए / [3] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु स्त्रियों के साथ संस्तव (संसर्ग या अतिपरिचय) और बार-बार वार्तालाप (संकथा) का सदैव त्याग करे / 4. अंगपच्चंग संठाणं चारुल्लविय-पहियं / बंभचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए॥ [4] ब्रह्मचर्यपरायण साधु नेत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान (आकृति, डोलडौल या शरीर रचना), बोलने की सुन्दर छटा (या मुद्रा), तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे / 5. कइयं रुइयं गीयं हसियं थणिय-कन्दियं / बंभचेररमो थीणं सोयगिज्झ विवज्जए॥ - [5] ब्रह्मचर्य में रत साधु श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने। 6. हासं किड्ड रई दप्पं सहभुत्तासियाणि य / बम्भचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि // [6] ब्रह्मचर्य-निष्ठ साधु दीक्षाग्रहण से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, दर्प (कन्दर्प, या मान) और साथ किए भोजन एवं बैठने का कदापि चिन्तन न करे। 1. बृहद्वत्ति, पत्र 427-428 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org