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________________ सोलहवाँ अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान] [266 सुन्दर वस्त्रादि उपकरणों से सुसज्जित करना, केशप्रसाधन करना आदि विभूषा है। इस प्रकार से शरीर-संस्कारकर्ता-शरीर को सजाने वाला-विभूषानुपाती है / विभूसावत्तिए : अर्थ-जिसका स्वभाव विभूषा करने का है, वह विभूषावृत्तिक है। विभूसियसरीरे-स्नान, अंजन, तेल-फुलेल आदि से शरीर को जो विभूषित-सुसज्जित करता है, वह विभूषितशरीर है। इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे---विभूषा करने वाला साधु स्त्रीजनों द्वारा अभिलषणीय हो जाता है, स्त्रियाँ उसे चाहने लगती हैं, स्त्रियों द्वारा चाहे जाने या प्रार्थना किये जाने पर ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है, जैसे-जब स्त्रियाँ इस प्रकार मुझे चाहती हैं, तो क्यों न मैं इनका उपभोग कर लूं? अथवा इसका उत्कट परिणाम नरकगमन है, अतः क्या उपभोग न करूं? ऐसी शंका तथा अधिक चाहने पर स्त्रीसेवन की अाकांक्षा. अथवा बार-बार मन में ऐसे विचारों का भूचाल मच जाने से स्त्रीसेवन की प्रबल इच्छा हो जाती है और वह ब्रह्मचर्य भंग कर देता है।' दसवाँ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान 12. नो सह-रूव-रस-गन्ध-फासाणुवाई हवड, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु सद्द-रूव-रस-गन्ध-फासाणुवाइस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुपज्जिज्जा, भयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालिय वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्मानो भंसेज्जा / तम्हा खलु नो निग्गन्थे सद्द-रूव-रस-गन्धफासाणुवाई हविज्जा / दसमे बम्भचेरसमाहिठाणे हवइ / भवन्ति इत्थ सिलोगा, तं जहा[१२] जो साधक शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता, वह निर्ग्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों ? [उ.] उत्तर में प्राचार्य कहते हैं-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त होने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है, अथवा ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, अथवा उसे उन्माद पैदा हो जाता है, या फिर दीर्घकालिक रोग या आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलिभाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में अनुपाती (-आसक्त) न बने / यह ब्रह्मचर्यसमाधि का दसवाँ स्थान है। इस विषय में यहाँ कुछ श्लोक हैं, जैसे विवेचन-सह-रूव-रस-गंध-फासाणुवाई : स्त्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अनुपाती-मनोज्ञ शब्दादि को देखकर पतित होने वाला या फिसल जाने वाला, या उनमें प्रासक्त / जैसे कि-शब्द-स्त्रियों के कोमल ललित शब्द या गीत, रूप-उनके कटाक्ष, वक्षस्थल, कमर आदि 1. बृहद वृत्ति, पत्र 427 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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