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________________ 260] उत्तराध्ययनसून दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा / तम्हा खलु नो निग्गन्थे अइमायाए पाणभोयणं भुजिज्जा / [10] जो अतिमात्रा में (परिमाण से अधिक) पान-भोजन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है / [प्र.] ऐसा क्यों? [उ.] उत्तर में प्राचार्य कहते हैं जो परिमाण से अधिक खाता-पीता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा अथवा विचिकित्सा उत्पन्न होती है, या ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ मात्रा से अधिक पान-भोजन का सेवन न करे। विवेचन–अइमायाए : व्याख्या-- मात्रा का अर्थ है-परिमाण / भोजन का जो परिमाण है, उसका उल्लंघन करना अतिमात्र है। प्राचीन परम्परानुसार पुरुष (साधु) के भोजन का परिमाण है-बत्तीस कौर और स्त्री (साध्वी) के भोजन का परिमाण अट्ठाईस कौर है, इससे अधिक भोजनपान का सेवन करना अतिमात्रा में भोजन-पान है / ' नौवाँ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान 11, नो विभूसाणुवाई हवइ, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे? पायरियाह-विभूसावत्तिए, विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे हवइ / तओ गं तस्स इथिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्मालो भंसेज्जा / तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवाई सिया। [11] जो विभूषा नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है / [प्र.] ऐसा क्यों? [उ.] इस प्रकार पूछने पर प्राचार्य कहते हैं जिसकी मनोवृत्ति विभूषा करने की होती है, जो शरीर को विभूषित (सुसज्जित) किये रहता है, वह स्त्रियों की अभिलाषा का पात्र बन जाता है। इसके पश्चात् स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा अथवा विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है, अथवा ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, अथवा उसे उन्माद पैदा हो जाता है, या उसे दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अत: निर्ग्रन्थ विभूषानुपाती न बने / विवेचन-विभूसाणुवाई शरीर को स्नान करके सुसंस्कृत करना, तेल-फुलेल लगाना 1. "बत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स, महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला // " -बृहद्वृत्ति, पत्र 426 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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