________________ सोलहवां अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान] [259 [उ.] इसके उत्तर में प्राचार्य कहते हैं जो पूर्व (गृहवास में की गई) रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, या वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / अतः निर्ग्रन्थ (संयमग्रहण से) पूर्व (गृहवास में) की (गई) रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न करे / विवेचन-छठे ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान का आशय-साधु अपनी पूर्वावस्था में चाहे भोगी, विलासी, या कामी रहा हो, किन्तु साधुजीवन स्वीकार करने के बाद उसे पिछली उन कामुकता की बातों का तनिक भी स्मरण या चिन्तन नहीं करना चाहिए। अन्यथा ब्रह्मचर्य को जड़ें हिल जाएंगी और धीरे-धीरे वह पूर्वोक्त संकटों से घिर कर सर्वथा भ्रष्ट हो जाएगा। सातवाँ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान 9. नो पणीयं प्राहारं आहारित्ता हवइ, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे? आयरियाह-निग्गन्थस्स खल पणीयं पाणभोयणं आहारेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा / तम्हा खलु नो निग्गन्थे पणीयं प्राहारं आहारेज्जा। [6] जो प्रणीत--रसयुक्त पौष्टिक आहार नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है / प्र.] ऐसा क्यों ? [उ.] इस पर प्राचार्य कहते हैं- जो रसयुक्त पौष्टिक भोजन-पान करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा उसके ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा वह केवलिप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ प्रणीत–सरस एवं पौष्टिक आहार न करे / विवेचन--पणीयं-प्रणीत : दो अर्थ-(१) जिस खाद्यपदार्थ से तेल, घी आदि की बूदें टपक रही हों, वह, अथवा (2) जो धातुवृद्धिकारक हो / ' आठवाँ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान 10. नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेता हवइ, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु अइमायाए पाणभोयणं पाहारेमाणस्स, बम्भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, 1 बृहद्वत्ति, पत्र 425 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org