________________ 258] [उत्तराध्ययनसूत्र [उ.] ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं जो निर्ग्रन्थ मिट्टी की दीवार के अन्तर से, पर्दे के अन्तर से, अथवा पक्की दीवार के अन्तर, से स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, गर्जन, प्राक्रन्दन अथवा विलाप के शब्दों को सुनता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है. अथवा उन्माद पैद है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, या वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ मिट्टी की दीवार के अन्तर से, पर्दे के अन्तर से, अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्द को न सुने। विवेचन–कुड्य और भित्ति के अर्थों में अन्तर–शब्दकोष के अनुसार इन दोनों का अर्थ एक है, किन्तु बृहद्वृत्ति के अनुसार कुड्य का अर्थ मिट्टी से बनी हुई भींत, सुखबोधा के अनुसार पत्थरों की दीवार और चूणि के अनुसार पक्की ईंटों से बनी भीत है। शान्त्याचार्य और प्रा. नेमिचन्द्र ने भित्ति का अर्थ पक्की ईंटों से बनी भींत और चूर्णिकार के अनुसार केतुक आदि है / कड्य (भीत) के 9 प्रकार--अंगविज्जा-भूमिका में कुड्य के 6 प्रकार वणित हैं—(१) लीपी हई भींत, (2) विना लीपी, (3) वस्त्र की भींत, पर्दा, (4) लकड़ी के तख्तों से बनी हुई, (5) अगल-बगल में लकड़ी के तख्तों से बनी, (6) घिस कर चिकनी बनाई हुई, (7) चित्रयुक्त दीवार, (8) चटाई से बनी हुई दीवार तथा (8) फूस से बनी हुई आदि / ' ___ कूजनादि शब्दों के अर्थ- कूजित-रतिक्रीड़ा शब्द, रुदित-रतिकलहादिकृत शब्द, हसितठहाका मार का हँसने का, कहकहे लगाने का शब्द, स्तनित--अधोवायुनिसर्ग आदि का शब्द, क्रन्दितवियोगिनी का प्राक्रन्दन / छठा ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान 8. नो निग्गन्थे पुव्वरयं, पुव्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे? पायरियाह-निग्गन्थस्स खलु पुन्वरयं पुवकोलियं अणुसरमाणस्स बम्भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा / तम्हा खलु नो निग्गन्थे पुव्वरयं, पुव्वकोलियं अणुसरेज्जा। [8] जो साधु (संयम ग्रहण से) पूर्व (गृहस्थावस्था में स्त्री आदि के साथ किये गए) रमण का और पूर्व (गृहवास में स्त्री आदि के साथ की गई) क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों? 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 425 (ख) सुखबोधा, पत्र 221, (ग) चूणि, पृ. 242 (घ) अंगविज्जा-भूमिका, पृ. 58-59 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 425 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org