________________ [257 सोलहवां अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान] [प्र.] ऐसा क्यों? __[3] इस पर प्राचार्य कहते हैं-~-जो निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को (ताक-ताक कर या दृष्टि गड़ा कर) देखता है और उनके विषय में चिन्तन करता है, उसके ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, या वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को न तो देखे और न ही उनका चिन्तन करे। विवेचन–मनोहर और मनोरम में अन्तर-मनोहर का अर्थ है-चित्ताकर्षक और मनोरम का अर्थ है-चित्तालादक ! __आलोइत्ता निज्झाइत्ता-'आलोकन' का यहाँ भावार्थ है-दृष्टि गड़ा कर बार-बार देखना / निान अर्थात् देखने के बाद अतिशयरूप से चिन्तन करना, जैसे--अहो ! इसके नेत्र कितने सुन्दर हैं ! अथवा आलोकन का अर्थ है-थोड़ा देखना, निर्ध्यान का अर्थ है-जम कर व्यवस्थित रूप से देखना।' इंदियाई-~-यहाँ उपलक्षण से सभी अंगोपांगों का, अंगसौष्ठव आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। पंचम ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान 7. नो इत्थीणं कुड्डन्तरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयसई वा, रुइयसई वा, गोयसई वा, हसियसह वा, थणियसई वा, कन्दियसई वा, विलवियसवा सुणेत्ता हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं कुड्डन्तरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयस वा, रुइयसई वा, गीयसद्द वा, हसियसह वा, थणियसह वा, कन्दियसई वा, विलवियसह बा, सुणेमाणस्स बंभयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्माय वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा / तम्हा खलु निग्गन्थे नो इत्थीणं कुड्डन्तरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयसहवा, रुइयस वा, गोयसह वा, हसियसह वा, थणियसई वा, कन्दियसई वा, विलवियसदं वा सुणेमाणे विहरेज्जा। [7] जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, कपड़े के पर्दे के अन्तर से, अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कृजितशब्द को, रुदितशब्द को, गीत की ध्वनि को, हास्यशब्द को, स्तनित (गर्जन-से) शब्द को, प्राक्रन्दन अथवा विलाप के शब्द को नहीं सुनता, वह निम्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों ? 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 425 (ख) मिलाइए-दशवकालिक 8 / 57 : 'चित्तभित्ति' न निज्झाए / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org