________________ [उत्तराध्ययनसून उग्रकुल की ऐसी होती है, अमुक कुल की वैसी, रूप-कर्णाटकी विलासप्रिय होती है इत्यादि, संस्थानस्त्रियों के डिलडौल, आकृति, ऊँचाई आदि की चर्चा, नेपथ्य-स्त्रियों के विभिन्न वेश, पोशाक, पहनावे आदि की चर्चा / इसका परिणाम पूर्ववत् है / ' तृतीय ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान 5. नो इत्थीहि सद्धि समिसेज्जागए विहरित्ता हवइ से निगन्थे / तं कहमिति चे ? आयरियाह- निग्गन्थस्स खलु इत्थीहि सद्धि सन्निसेज्जागयस्स, बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्मानो भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे इत्थीहिं सद्धि सन्निसेजागए विहरेज्जा। [5] जो स्त्रियों के साथ एक प्रासन पर नहीं बैठता, वह निर्ग्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों? [उ.] आचार्य कहते हैं- जो ब्रह्मचारी निर्गन्थ स्त्रियों के साथ एक प्रासन पर बैठता है, उस को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, या दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है; अथवा वह केवलिप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। विवेचन इत्थीहि सद्धि सन्निसिज्जागए : व्याख्या-इसकी व्याख्या बहदवत्ति में दो प्रकार से की गई है - (1) स्त्रियों के साथ सन्निषद्या--पट्टा, चौको, शय्या, बिछौना, आसन आदि पर न बैठे, (2) स्त्री जिस स्थान पर बैठी हो उस स्थान पर तुरंत न बैठे, उठने पर भी एक मुहूर्त (दो घड़ी) तक उस स्थान या आसनादि पर न बैठे। चतुर्थ ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान 6. नो इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई, मणोरमाई आलोइत्ता, निज्माइत्ता हवइ, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे ? पायरियाह-निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई, मणोरमाई आलोएमाणस्स, निज्झायमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वां रोगायक हवेज्जा, केलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु निग्गन्थे नो इत्थोणं इन्दियाइं मणोहराई, मणोरमाई आलोएज्जा, निज्झाएज्जा। [6] जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को (ताक-ताक कर) नहीं देखता, उनके विषय में चिन्तन नहीं करता, वह निम्रन्थ श्रमण है / 1. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 424, (ख) मिलाइए--दशवं. 8.52, स्थानांग 91663, समवायांग, 9 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 424 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org