________________ सोलहवां अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान] [255 दीर्घकालिक रोग और अातंक, (7) जिन-प्ररूपित धर्म से भ्रष्टता, इन सात हानियों की सम्भावना है / इनकी व्याख्या-शंका साधु को अथवा साधु के ब्रह्मचर्य के विषय में दूसरों को शंका हो सकती है कि यह स्त्री आदि से संसक्तस्थान आदि का सेवन करता है, अतः ब्रह्मचारी है या नहीं ?, अथवा मैथुनसेवन करने से नौ लाख सूक्ष्म जीवों की विराधना आदि दोष बताए हैं, वे यथार्थ हैं या नहीं ? या ब्रह्मचर्यपालन करने से कोई लाभ है या नहीं, तीर्थंकरों ने अब्रह्मचर्य का निषेध किया है या यों ही शास्त्र में लिख दिया है ? अब्रह्मचर्यसेवन में क्या हानि है / कांक्षा-शंका के पश्चात् उत्पन्न होने वाली अब्रह्मचर्य की या स्त्रीसहवास ग्रादि की इच्छा / विचिकित्सा-चित्तविप्लव / जब भोगाकांक्षा तीव्र हो जाती है, तब मन समूचे धर्म के प्रति विद्रोह कर बैठता है या व्यर्थ के कुतर्क या कुविकल्प उठाने लगता है, यह विचिकित्सा है। यथा-इस असार संसार में कोई सारभूत वस्तु है तो वह सुन्दरी है / अथवा इतना कष्ट उठा कर ब्रह्मचर्यपालन का कुछ भी फल है या नहीं ? यह भी विचिकित्सा है। भेद-जब विचिकित्सा तीव्र हो जाती है, तब झटपट, ब्रह्मचर्य का भंग करके चारित्र का नाश करना भेद है / उन्माद--ब्रह्मचर्य के प्रति विश्वास उठ जाने या उसके पालन में प्रानन्द न मानने की दशा में बलात मन और इन्द्रियों को दबाने से कामोन्माद तथा दीर्घकालीन रोग (राजयक्ष्मा, मृगी, अपस्मार, पक्षाघात आदि) तथा आतंक (मस्तकपीडा, उदरशूल आदि) होने की सम्भावना रहती है। धर्मभ्रश—इन पूर्व अवस्थाओं से जो नहीं बच पाता, वह चारित्रमोहनीय के क्लिष्ट कर्मोदय से धर्मभ्रष्ट भी हो जाता है / ' द्वितीय ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान 4. नो इत्थीणं कहं कहिता हवइ, से निग्गन्थे / तं कहमिति चे? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं कहं कहेमाणस्स, बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायंक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माश्रो भंसेज्जा। तम्हा नो इत्थीणं कहं कहेज्जा / [4] जो स्त्रियों की कथा नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों? [उ.] ऐसा पूछने पर प्राचार्य कहते हैं जो साधु स्त्रियों सम्बन्धी कथा करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का नाश होता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, या दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता थवा वह केवाल-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अत: निर्ग्रन्थ स्त्रीसम्बन्धी कथा न करे। विवेचन–नो इत्थीणं : दो व्याख्या--बृहद्वत्तिकार ने इसकी दो प्रकार की व्याख्या की है—(१) केवल स्त्रियों के बीच में कथा (उपदेश) न करे और (2) स्त्रियों की जाति, रूप, कुल, वेष, शृगार आदि से सम्बन्धित कथा न करे / जैसे—जाति—यह ब्राह्मणी है, वह वैश्या है ; कुल 1. बहवत्ति, पत्र 424 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org