________________ 248] [उत्तराध्ययनसूत्र वाला (2) आय—सम्यग्दर्शनादि-लाभ का अथवा प्रायत-मोक्ष का गवेषक---आयगवेषक या आयतगवेषक / ' ___ विज्जाहिं न जीवई' को व्याख्या--प्रस्तुत गाथा (सं. 7) में दस विद्याओं का उल्लेख है / (1) छिन्ननिमित्त, (2) स्वरनिमित्त, (3) भौमनिमित्त, (4) अन्तरिक्षनिमित्त, (5) स्वप्ननिमित्त, (6) लक्षणनिमित्त, (7) दण्डविद्या, (8) वास्तुविद्या, (8) अंगविकारनिमित्त, और (10) स्वरविचय / ___ अष्टांगनिमित्त-अंगविज्जा में अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छिन्न, भौम और अन्तरिक्ष, ये अष्टांगनिमित्त बताए / प्रस्तुत गाथा में 'व्यंजन' को छोड़ कर शेष 7 निमित्तों का उल्लेख है / दण्डविद्या, वास्तुविद्या और स्वरविचय, ये तीन विद्याएँ मिलकर कुल दस विद्याएँ होती हैं। प्रत्येक का परिचय -छिन्नविद्या-(१) वस्त्र, दांत, लकड़ी आदि में किसी भी प्रकार से हुए छेद या दरार के विषय में शुभाशुभ निरूपण करने वाली विद्या / (2) स्वर विद्या-षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, धैवत आदि सात स्वरों में से किसी स्वर का स्वरूप एवं फलादि कहना, बताना या गाना / (3) भौमविद्या भूमिकम्पादि का लक्षण एवं शुभाशुभ फल बताना अथवा भूमिगत धन आदि द्रव्यों को जानना / (4) अन्तरिक्षविद्या-आकाश में गन्धर्वनगर, दिग्दाह, धूलिवृष्टि आदि के द्वारा अथवा ग्रहनक्षत्रों के या उनके युद्धों के तथा उदय-अस्त के द्वारा शुभाशुभ फल कहना। (5) स्वप्नविद्या स्वप्न का शुभाशुभ फल कहना / (6) लक्षणविद्या स्त्री-पुरुष के शरीर के लक्षणों को देखकर शुभाशुभ फल बताना / (7) दण्डविद्या-- बांस के दण्ड या लाठी आदि को देखकर उसका स्वरूप तथा शुभाशुभ फल बताना / (8) वास्तुविद्या प्रासाद आदि प्रावासों के लक्षण, स्वरूप एवं तद्विषयक शुभाशुभ का कथन करना, (9) अंगविकारविद्या नेत्र, मस्तक, भुजा आदि फड़कने पर उसका शुभाशुभ फल कहना। (10) स्वरविचयविद्या----कोचरी (दुर्गा), शृगाली, पशु-पक्षी आदि का स्वर जान कर शुभाशुभ फल कहना / सच्चा भिक्षु वह है, जो इन विद्यानों द्वारा आजीविका नहीं चलाता / मंतं मूलं इत्यादि शब्दों का प्रासंगिक अर्थ (1) मंत्र--लौकिक एवं सावध कार्य के लिए मंत्र, तंत्र का प्रयोग करना या बताना / (2) मूल-वनस्पतिरूप औषधियों -जड़ीबूटियों का प्रयोग करना या बताना / (3) वैद्यचिन्ता—वैद्यकसम्बन्धी विविध औषधि आदि का विचार एवं प्रयोग करना / (4-5) वमन, विरेचन, (6) धूप-भूतप्रेतादि को भगाने के लिए मैनसिल वगैरह की धूप देना / (7) नेत्र या नेती-आँखों का सुरमा, अंजन, काजल, या जल नेती का प्रयोग बताना, (8) स्नान-पुत्रप्राप्ति के लिए मंत्र या जड़ीबूटी के जल से स्नान, ग्राचमन आदि बताना / (6) आतुर. स्मरण, एवं (10) दूसरों की चिकित्सा करना, कराना / ' 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 415 2. (क) उत्तरा. मूलपाठ, अ. 15 गा. 7, (ख) "अंग सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा / __ छिण्ण-भोम्मऽतलिक्खाए एमेए अट्ठ आहिया / " - अंगविज्जा 1/23 (ग) वृहद्वृत्ति, पत्र 416-417 3. वही, पत्र 417. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org