________________ पन्द्रहवां अध्ययन : समिक्षकम] [247 राओवरयं : दो रूप : दो अर्थ-(१) रागोपरत--राग (प्रासक्ति या मैथुन) से उपरत, (2) राश्युपरत- रात्रिभोजन तथा रात्रिविहार से उपरत-निवृत्त / वेयवियाऽऽयरक्खिए-वेदविदात्मरक्षित : दो रूपः दो अर्थ-(१) वेदवित् होने के कारण आत्मा की रक्षा करने वाला / जिससे तत्त्व जाना जाता है, उसे वेद यानी सिद्धान्त (आगम) कहते हैं / उसका वित्-वेत्ता-ज्ञाता होने से दुर्गति में पतन से प्रात्मा का जिसने रक्षण-त्राण किया है। (2) वेदवित्-ज्ञानवान् तथा आयरक्षित-जिसने सम्यग्दर्शनादि लाभों की रक्षा की है, वह रक्षिताय पन्ने-प्राज्ञ : दो अर्थ-(१) बृहद्वृत्ति के अनुसार--हेयोपादेय में बुद्धिमान् तथा (2) चूर्णिकार के अनुसार-पाय (सम्यदर्शन-ज्ञान-चारित्र के लाभ) और उपाय (उत्सर्ग-अपवाद तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव) की विधियों का ज्ञाता / अभिभूय–परीषह-उपसर्गों को या राग-द्वेष को पराजित करके / सव्वदंसी-दो रूप : तीन अर्थ-(१) सर्वदर्शी-समस्त प्राणिगण को यात्मवत् देखने वाला, (2) सर्वदर्शी- सभी वस्तुएँ समभाव से देखने वाला, अथवा सर्वदंशी---इसका भावार्थ है—पात्र में लेपमात्र भी भोजन न रख कर दुर्गन्धित हो या सुगन्धित, सारे भोजन को खाने वाला। ___ कम्हि वि न मुच्छिए-जो किसी भी सचित्त या अचित्त वस्तु में मूच्छित यानी प्रतिबद्धसंसक्त नहीं है / इस पंक्ति से मुख्यतया परिग्रहनिवृत्ति का विधान तो स्पष्ट सूचित होता है, गौणरूप से अदत्तादानविरमण, से मैथुन एवं असत्य से विरमण भी सूचित होता है। अर्थात्-भिक्षु समस्त मूलगुणों से युक्त होता है। लाढे : भावार्थ --लाढ शब्द दूसरी एवं तीसरी गाथा में पाया है। दोनों स्थानों में लाढ शब्द का भावार्थ : "अपने सदनुष्ठान के कारण प्रधान-प्रशस्त" किया गया है। प्रायगुत्ते-आत्मगुप्त : दो अर्थ (1) बृहद्वत्ति के अनुसार--प्रात्मा का अर्थ शरीर भी होता है, अतः आत्मगुप्त का अर्थ हया---शरीर के अवयवों को गुप्त-संवत--नियंत्रित रखने वाला, (2) सुखबोधावृत्ति के अनुसार असंयम-स्थानों से जिसने आत्मा को गुप्त--रक्षित कर लिया है, वह / पूअं-पूजा-वस्त्र-पात्र आदि से सेवा करना / आयगवेसए : दो रूप : दो अर्थ-(१) आत्मगवेषक-कर्मरहित आत्मा के शुद्धस्वरूप की गवेषण-अन्वेषण करने वाला, अर्थात्- मेरी आत्मा कैसे (शुद्ध) हो, इस प्रकार अन्वेषण करने 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 414 2. (क) प्राज्ञो-विदुः सम्पन्नो ग्रायोपायविधिज्ञो भवेत् उत्सर्गापवादद्रव्याद्यापदादिको यः उपायः / - चूणि. पृ. 234 (ख) प्राज्ञः हेयोपादेयबुद्धिमान् / -बृहद्वत्ति, पत्र 414 3. बृहद्वत्ति, पत्र४१४ / 4. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 415 (ख) सुखबोधा, पत्र 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org