________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सभिक्षुकम्] [249 भोईअ दो अर्थ—(१) भोगिक-विशिष्ट वेशभूषा में रहने वाले राजमान्य अमात्य आदि प्रधान पुरुष, (2) भोगी--विशिष्ट गणवेश का उपभोग करने वाले / ' भयभेरवा---(१) अत्यन्त भयोत्पादक अथवा (2) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार भयअाकस्मिकभय और भैरव----सिंहादि से उत्पन्न होने वाला भय / 2 खेयाणुगए : खेदानुगत : दो अर्थ-(१) विनय, वैयावृत्य एवं स्वाध्याय आदि प्रवृत्तियों से होने वाले कष्ट को खेद कहते हैं, उससे अनुगत-युक्त, (2) खेद-संयम से अनुगत--सहित / अविहेडए : अविहेटक-जो वचन और काया से दूसरों का अपवाद-निन्दा या प्रपंच नहीं करता या जो किसी का भी बाधक नहीं होता। अमित्ते—अमित्र का सामान्य अर्थ है—जिसके मित्र न हों। यहाँ आशय यह है कि मुनि के ग्रासक्तिवर्द्धक मित्र नहीं होना चाहिए। तिविहेण नाणकये: तात्पर्य जो चारों प्रकार का आहार गृहस्थों से प्राप्त करके बाल, ग्लान आदि साधुओं पर अनुकम्पा (उपकार) नहीं करता, उन्हें नहीं देता, वह भिक्षु नहीं है, किन्तु जो साधक मन, वचन और काया से अच्छी तरह संवृत (संवरयुक्त) है, वह पाहारादि से बाल, ग्लान आदि साधुओं पर अनुकम्पा (उपकार) करता है, वह भिक्षु है / यही इस गाथा का प्राशय है। वायं विविहं : व्याख्या---अपने-अपने दर्शन या धर्म का अनेक प्रकार का वाद या विवाद / जैसे कि-कोई पुल बांधने में धर्म मानता है, तो कोई पुल न बांधने में, कोई गृहवास में धर्म मानता है, कोई वनवास में, कोई मुण्डन कराने में तो कोई जटा रखने में धर्म समझता है। इस प्रकार के नाना वाद हैं। ___ लहु-अप्पभक्खी- लघु का अर्थ है-सुच्छ, नीरस और अल्प का अर्थ है-थोड़ा / अर्थात्नीरस भोजन और वह भी मात्रा में खाने वाला। एगाचरे : दो अर्थ-(१) एकाकी--रागद्वेषरहित होकर विचरण करने वाला, (2) तथाविध योग्यता प्राप्त होने पर दूसरे साधुओं की सहायता लिये बिना अकेला विचरण करने वाला। ॥पन्द्रहवाँ अध्ययन : सभिक्षुकम् समाप्त // (ख) सुखबोधा, पत्र 217 (ख) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वृत्ति, पत्र 143 1. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 418 2. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 419 3. वृहद्वृत्ति, पत्र 419 4. वही, 419-420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org