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________________ चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय] [239 50. सम्म धम्मं वियाणित्ता चेच्चा कामगुणे वरे / ___ तवं पगिज्झऽहक्खायं घोरं घोरपरक्कमा / [50] धर्म को भलीभांति जान कर, फलतः उपलब्ध श्रेष्ठ कामगुणों को छोड़ कर तथा जिनवरों द्वारा यथोपदिष्ट धोर तप को स्वीकार कर दोनों ही तप-संयम में घोर पराक्रमी बने / 51. एवं ते कमसो बुद्धा सम्वे धम्मपरायणा / __ जम्म-मच्चुभउव्विग्गा दुक्खस्सन्तगवेसिणो॥ [51] इस प्रकार वे सब (छहों मुमुक्षु आत्मा) क्रमश: बुद्ध (प्रतिबुद्ध अथवा तत्त्वज्ञ) हुए, धर्म (चारित्रधर्म) में तत्पर हुए, जन्म-मरण के भय से उद्विग्न हुए, अतएव दुःख के अन्त का अन्वेषण करने में लग गए। 52. सासणे विगयमोहाणं पुवि भावणभाविया / अचिरेणेव कालेण दुक्खस्सन्तमुवागया / 53. राया सह देवीए माहणो य पुरोहिनो। माहणी दारगा चेव सव्वे ते परिनिव्वुडे // -त्ति बेमि। [52-53] जिन्होंने पूर्वजन्म में अपनी प्रात्मा को अनित्य, अशरण आदि भावनाओं से भावित किया था, वे सब रानी (कमलावती) सहित राजा (इषुकार), ब्राह्मण (भगु) पुरोहित, उसकी पत्नी ब्राह्मणी (यशा) और उनके दोनों पुत्र ; वीतराग अर्हत-शासन में (पा कर) मोह को दूर करके थोड़े ही समय में, -दुःख का अन्त कर परिनिर्वृत्त-(मुक्त) हो गए। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-रज्ज : के दो अर्थ (1) राष्ट्र-राज्यमण्डल, अथवा (2) राज्य / निव्वसया निरामिसा : दो अर्थ-(१) राजा-रानी दोनों शब्दादि विषयों से रहित हुए अतः भोगासक्ति के कारणों से रहित हुए। (2) अथवा विषय अर्थात्—(अपने राष्ट्र का परित्याग करने के कारण) देश से विरहित हुए तथा कामभोगों का परित्याग करने के कारण निरामिष-विषयभोगों की प्रासक्ति के कारणों से दूर हो गए। निन्नेहा निप्परिग्गहा-निःस्नेह-किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध या प्रतिबद्धता से रहित, अतएव निष्परिग्रह-सचित्त-अचित्त, विद्यमान-अविद्यमान, द्रव्य और भाव सभी प्रकार के परिग्रहों से रहित हुए। सम्मं धम्मं वियाणित्ता-धर्म-श्रुत-चारित्रात्मक धर्म को सम्यक्-प्रकार से जान कर।' __ घोरं घोरपरकम्मा : व्याख्या-(१) बृहद्वृत्ति के अनुसार तीर्थकरादि के द्वारा यथोपदिष्ट अनशनादि घोर अत्यन्तदुष्कर-उत्कट तप स्वीकार करके शत्रु के प्रति रौद्र पराक्रम की तरह कर्मशत्रुओं का क्षय करने में धर्माचरण विषयक घोर-कठोर पराक्रम वाले बने। (2) तत्त्वार्थराज -- ...- -. ... ... . . 1. बृहद्वत्ति, पत्र 411 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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